राजस्थान विधानसभा चुनाव 2023: उदयपुर की खेरवाड़ा सीट पर किसका होगा ‘उदय’, क्या बीजेपी लगाएगी इस सीट पर सेंध

Rajasthan Assembly Election 2023

राजस्थान विधानसभा चुनाव सरगर्मी अब अपने चरम पर पहुंचती नजर आ रही है। राज्य में कांग्रेस और बीजेपी दोनों प्रमुख पार्टियों के शीर्ष नेताओं के दौरे और रैलियां बढ़ गई हैं। इस बीच लोकसभा चुनाव 2024 को लेकर भी सियासी दलों में मंथन ​शुरु हो गया है। विधानसभा चुनाव के नतीजों का प्रभाव लोकसभा चुनाव पर भी पड़ना तय है। ऐसे में सभी 200 विधानसभा सीटों पर दोनों दल खास रणनीति के साथ मैदान में उतरे हैं। लेकिन राजस्थान की गिनती उन राज्यों में होती है जहां की जनता हर पांच साल में सरकार बदल देती है। 2013 में बीजेपी ने प्रचंड बहुमत के साथ सरकार बनाई थी, लेकिन 2018 के चुनाव में वो कोई चमत्कार नहीं कर सकी और जनता ने उसे विपक्ष में बैठाकर कांग्रेस को सरकार बनाने का मौका दिया।

गहलोत और पायलट दोनों गुट दिखा रहे चुनाव में दम

अशोक गहलोत के नेतृत्व में राज्य में कांग्रेस ने सत्ता संभाली, लेकिन सत्ता संभालने के साथ ही राजस्थान में कांग्रेस में बगावत के स्वर सुनाई देने लगे। शुरुआती दिनों को छोड़ दें तो गहलोत सरकार हर समय विपक्ष के साथ पक्ष के खासकर पूर्व डिप्टी सीएम सचिन पायलट गुट के निशाने पर रही। डिप्टी सीएम और कांग्रेस प्रदेशाध्यक्ष के पद छिनने के बाद सचिन पायलट पूर्व की वसुंधरा राजे सरकार में हुए भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाकर गहलोत सरकार पर निशाना साधने लगे। पायलट ने भ्रष्टाचार, भर्ती में धांधली और दूसरे मुद्दों को लेकर अपनी ही सरकार के अनशन के साथ पदयात्रा तक निकाली। गहलोत गुट ने इसे लेकर शिकायत हाईकमान तक पहुंचाई। हालांकि पार्टी हाईकमान ने पायलट के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की या ये कहें की कार्रवाई की हिम्मत नहीं कर सका। अब जबकि चुनाव सामने आ चुके हैं, अशोक गहलोत और सचिन पायलट दोनों गुट के नेताओं को सामंजस्य बनाने की हिदायत दी गई, जिस पर पालन भी किया जा रहा है। एक एक सीट पर कांग्रेसी चुनावी रणनीति बना रहे हैं।

एक-एक सीट को लेकर बनाई जा रही चुनावी रणनीति

राजस्थान में विधानसभा चुनाव से पहले सियासी दल एक-एक विधानसभा सीट को हर तरह से टटोलने में जुटे हैं। राजस्थान के मेवाड़ की बात करें तो मेवाड़ को जनजाति बहुल इलाका कहा जाता है। इसमें जनजाति बहुल खेरवाड़ा सीट सबसे शिक्षित सीट कही जाती है। उदयपुर जिले की खेरवाड़ा विधानसभा सीट पर कांग्रेस के डॉ.दयाराम परमार 6 बार विधानसभा का चुनाव जीत चुके हैं। इस सीट को लेकर यह भी कहा जाता है कि राजस्थान में हर बार सरकार बदलती है। वैसे ही यहां की भी जनता प्रत्याशी चुनने में खासी सजग रही है। कभी बीजेपी तो कभी कांग्रेस से विधायक चुने गए। खेरवाड़ा कस्बा उदयपुर से करीब 82 किमी दूर गुजरात से लगा हुआ है। कुछ ही दूरी पर गुजरात की सीमा है। गुजरात में शराब तस्करी का यह भी मुख्य मार्ग है। क्योंकि आए दिन यहां अवैध शराब तस्करी पर पुलिस कार्रवाई करती रहती है। खेरवाड़ा अनुसूचित जनजाति के लिए सुरक्षित  विधानसभा सीट है। साल 2018 चुनाव में दयाराम परमार जीते थे। वहीं 2013 के चुनाव में नानालाल अहारी ने जीत दर्ज की। इससे पहले 2008 में कांग्रेस तो 2003 में बीजेपी के प्रत्याशी चुनाव जीते। यहां ऐसा ही चलता आ रहा है। इस विधानसभा सीट में कुल संख्या दो लाख 34 हजार 596 मतदाता हैं।

गहलोत ने खेरवाड़ा को नहीं बनाया जिला

खेरवाड़ा के स्थानीय कांग्रेस की गहलोत सरकार से इसलिए खफा हैं क्योंकि इसे जिला नहीं बनाया गया। लोगों का कहना है खेरवाड़ा विधानसभा क्षेत्र की प्रमुख तीन मांग रही हैं। जिसमें खेरवाड़ा को जिला घोषित करना सबसे प्रमुख मांग है। इसके लिए कई बार लोग आंदोलन भी कर चुके हैं। सीएम गहलोत के जिलों की घोषणाओं की सूची में खेरवाड़ा का नाम भी आ चुका था लेकिन सलूम्बर को नया जिला बना दिया। इसे लेकर कस्बे की जनता नाराज है। दूसरी बड़ी मांग जलसंकट दूर करने की है। यहां पास में ही गोदावरी बांधी है। जिससे लोगों की प्यास बुझती है, लेकिन जलसंकट का स्थाई समधान नहीं निकाला गया। स्थानीय लोग मांग कर रहे हैं कि कि विधानसभा क्षेत्र का बड़ा कस्बा ऋषभदेव के पास स्थिति कागदर डेम से खेरवाड़ा पानी लाया जाए। तीसरी प्रमुख मांग खेरवाड़ा कस्बे से गुजर रहे एनएच-8 पर एलिवेटेड रोड बनाया जाए। इस मांग को लेकर लोग केन्द्रीय मंत्री नितिन गडकरी तक पहुंच चुके हैं। उस समय बजट भी आया था लेकिन आगे कुछ नहीं हुआ।

यहां भी दिखाई देती है कांग्रेस में आंतरिक कलह

दो साल पहले सीएम अशोक गहलोत ने मंत्रिमंडल के गठन के समय पूर्व मंत्री और खेरवाड़ा से कांग्रेस विधायक डॉ.दयाराम परमार की ओर से सीएम अशोक को पत्र लिखा गया था। जिसमें सीएम से विधायक ने पूछा था मंत्री बनने के लिए क्या योग्यता होनी चाहिए, क्योंकि मंत्रिमंडल में इस क्षेत्र को कभी स्थान नहीं मिला।

बीजेपी को मजबूत चेहरे की तलाश

राजनीतिक विश्लेषक बताते हैं कि उदयपुर संभाग की इस आदिवासी बहुल सीट का सकारात्मक पक्ष यह है कि यह प्रदेश की पहली शिक्षित और जनजाति बहुल सीट भी मानी जाती है। यह एक तरह से कांग्रेस की परंपरागत सीट भी मानी जाती है। जिस पर दयाराम परमार लगातार जीत दर्ज करते रहे हैं। वे मंत्री भी बनाए गए थे। लेकिन 2018 के विधानसभा चुनाव में बहुत अच्छी जीत के बावजूद इस बार उनको मंत्री पद नहीं दिया गया। इसकी नाराजगी दयाराम परमार स्वयं कई बार व्यक्त कर चुके हैं। Phd  होल्डर डॉ.विधायक दयाराम इस बार भी मैदान में हैं। वहीं बीजेपी के लिए यह जीतना आसान नहीं है। उसके पास फिलहाल कोई चेहरा मजबूत नहीं है। यही वजह है कि पिछली बार भी बीजेपी के दो दावेदारों के चलते उसके वोट प्रतिशत का गणित गड़बड़ा गया था और बीजेपी का एक नेता बागी निर्दलीय चुनाव मैदान में उतरा जिससे बीजेपी यहां भी हार गई।

Exit mobile version