सियासत में रियासतों का दखल
भारतीय राजनीति में राजघरानों की भी अहम भूमिका रही है। आजादी मिलने के बाद भले ही राजा रजवाड़ों की परंपरा खत्म हो गई लेकिन आज भी देश के कई राज्य ऐसे हैं जहां राज परिवार की परंपरा निभाई जाती है। इतना ही नहीं सियासत में भी रियासतों का खासा दखल है। रियासतों की अनुकंपा के बगैर किसी भी सियासी पार्टी का काम नहीं चलता। इनमें मध्य प्रदेश छत्तीसगढ़ उत्तरप्रदेश का नाम प्रमुखता से शामिल है।
सिंधिया दिग्विजय राज परिवार के सदस्य
मध्य प्रदेश की बात की जाए तो यहां माधवराव सिंधिया और दिग्विजय सिंह के परिववार का नाम सबसे पहले आता है। ये दोेनों ही परिवार राजशाही शानोशौकत देख चुके हैं। एमपी की रियासतों का भारतीय राजनीति में इस कदर दखल है कि यहां की रियासतों के वंशज न देश की राजनीति में अहम भूमिका निभाने के साथ ही राज्य की सत्ता भी अक्सर इन्हीं के आसपास घूमती रहती है।
आजादी से पहले चार हिस्सों में बढ़ा था मध्य प्रदेश
आजादी से पहले के मध्य प्रदेश की बात करें तो यह चार हिस्सों में विभाजित था। 1950 में मध्य प्रांत और बरार को छत्तीसगढ़ और मकराइ रियासतों के साथ मिलकर मध्य प्रदेश का गठन किया गया और राजधानी नागपुर बनाई गई थी। लेकिन 1 नवंबर 1956 को मध्य भारत , विंध्य प्रदेश तथा भोपाल राज्य भी इसमें ही मिलाकर एक किया गया। इसके साथ ही भोपाल को राजधानी बनाया गया। 1 नवंबर 2000 को एक बार फिर मध्य प्रदेश का पुनर्गठन किया गया। जिसमें छत्त्तीसगढ़ को मध्य प्रदेश से अलग कर भारत का 26 वां राज्य बनाया। आजादी से पहले मध्य प्रदेश में कई रियासतों को बोलबाला था। आजादी के बाद अब राजनीति में ग्वालियर , छतरपुर , राघोगढ़ , खिलचीपुर , नरसिंहगढ़ , चुरहट , खंडवा, इंदौर और देवास प्रमुख हैं। वहीं ग्वालियर का सिंधिया राज परिवार और राघोगढ़ दिग्विजय सिंह का राघराना, दोनों का दखल प्रदेश और देश की राजनीति में कायम है।
सियासत में राघोगढ़ रियासत के वंशज
एमपी में राघोगढ़ रियासत के वंशज आज भी सियासत मे सक्रिय भूमिका निभा रहे हें। दिग्विजय सिंह दस साल तक मुख्यमंत्री रहे हैं। उनके पिता बलभद्र सिंह राघोगढ़ रियासत के राजा थे। दिग्विजय सिंह 1971 में राजनीति में आए। तक राघोगढ़ नगरपालिका के अध्यक्ष बने। 1977 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के टिकट पर राघोगढ़ विधानसभा क्षेत्र से विधायक बने। 1980 में फिर से चुनाव जीतने के बाद दिग्विजय को अर्जुन सिंह मंत्रिमंडल में राज्यमंत्री बने। 1984 और 1992 में वह लोकसभा सदस्य रहे। 1993 और 1998 में वह दो बार राज्य के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठे।
ग्वालियर रियासत का दखल
ग्वालियर रियासतकी भूमिका एमपी ही नही देश की राजनीति में प्रमुख रही। आजाद भारत में 25 रियासतों को एक करके मध्य भारत बनाया गया था। उस दौर में मध्य भारत की राजधानी ग्वालियर हुआ करती थी। वहां शासक जीवाजी राव सिंधिया को राजप्रमुख बनाया गया। सिंधिया को राजप्रमुख बनाने के खिलाफ होल्कर राजवंश खड़ा हो गयाथा। बाद में भारत सरकार ने होल्कर राजवंश के यशवंत राव को उप राजप्रमुख बनाया। इसके साथ ही जीवाजी राव सिंधिया को मध्य भारत स्टेट का राजप्रमुख नियुक्त किया गया। सिंधिया परिवार का देश की स्वतंत्रता तक ग्वालियर पर शासन रहा। 1962 में राजमाता विजयाराजे सिंधिया लोकसभा सदस्य बनीं। वे शुरू मे कांग्रेस में थीं लेकिन बाद में जनसंघ और भारतीय जनता पार्टी में शामिल हो गईं। जबकि उनके पुत्र माधवराव सिंधिया 1971 में कांग्रेस से लोकसभा सदस्य चुने गए थे। वे 2001 तक लोकसभा के सदस्य रहे। एक हादसे में उनका निधन हो गया था। मौजूदा राजनीति में माधवराव सिंधिया की विरासत को उनके पुत्र ज्योतिरादित्य सिंधिया आगे बढ़ा रहे हैं। पहले ज्योतिरादित्य सिंधिया कांगेस से सांसद चुने गएग थे लेकिन कालांतर में बीजेपी की वे केन्द्र की बीजेपी की नरेन्द्र मोदी सरकार में मंत्री हैं।
भाजपा में वसुंधरा और यशोधरा
राजमाता विजयाराजे सिंधिया के बेटे जहां कांग्रेस से जुड़े वहीं उनकी बेटियों ने बीजेपी का समर्थन किया है। वसुंधरा राजे सिंधिया ने मध्य प्रदेश और राजस्थान से पांच संसदीय चुनावों मे विजय पाई। उसकी बेटी यशोधरा राजे सिंधिया ने मध्य प्रदेश के शिवपुरी से विधानसभा चुनाव लड़ा और 1998 और 2003 में विजय प्राप्त की। तो वहहीं वसुंधरा राजो सिंधिया राजस्थान में मुख्यमंत्री तक रहीं।
चुरहट और देवास रियासत
राघोगढ़ और ग्वालियर रिसायत के अलावा चुरहट रियासत के अर्जुन सिंह भी राज्य के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठे। चुरहट के अजय सिंह भी राज्य की राजनीति में एक कद्दावर नेता की भूमिका निभा रहे हैं। हम देवास रियासत की बात करें तो यहां के महाराज तुकोजीराव पवार चतुर्थ का 2015 में निधन हुआ था। पवार रियासत की स्थापना सन 1728 में हुई थी। वे देवास राजघराने के नौंवे महाराज और देवास के विधायक थे। वे लगातार 6 बार वहां से विधायक रहे। मंत्रिमंडल में भी शामिल हुए। वहीं। मौजूदा दौर में उनकी पत्नी विधायक हैं। इनके अलावा कई और रियासतों के वारिश मध्य प्रदेश की राजनीति में सक्रिय रूप से भागीदारी निभा रहे हैं। बात करें गोविन्द नारायण सिंह की तो वे 1967 से 11969 तक एमपी के मुख्यमंत्री रहे। वे विन्ध्य प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री अवधेश प्रताप सिंह के पुत्र थे। तो सारंगढ़ रियासत के पूर्व राजा नरेशचंद्र सिंह भी एमपी के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठ चुके हैं।
छत्तीसगढ़ में राज परिवारों का दखल
धर्मजयगढ़, कवर्धा, सक्ती, चंद्रपुर, बिलाईगढ़, सराईपाली, बसना, बिंद्रानवागढ़, छुरा और फिंगेसर जैसी रियासतों या ज़मींदारियों से भी राज परिवार के सदस्यों ने राजनीति में हाथ आजमाया। वे सफल भी रहे। कई इलाकों में धीरे धीरे राज परिवारों का सत्ता पर दखल कमज़ोर पड़ता चला गया। छत्तीसगगढ़ में भी राज सिंहासन भले चला गया लेकिन राजघरानों की सत्ता को बरकरार रखने की कोशिश अब भी जारी है। मध्यप्रांत की विधानसभा में पहली बार जो लोग चुन कर पहुंचे थे, उनमें बड़ी संख्या राजाओं की थी, बाद के दिनों में जनतंत्र की तरह ही लोकतंत्र में भी रियासतों का परिवारवाद बढ़ता चला गया। राजनीतिक मामलों के जानकारों की माने तो राज परिवार का होना ही काफी नहीं है जिससे राजनीति में भी किसी को खास महत्व मिले। छत्तीसगढ़ में अधिकांश रियासत के शासकों ने अपनी मेहनत और लोकप्रियता के बल पर राजनीति में जगह बनाई थी। बता दें छत्तीसगढ़ में आज़ादी के समय 14 रियासतें ओर जमीदारियां थीं लेकिन जमीदारी प्रथा समाप्त होते ही रियासतों के उत्तराधिकारी राजनीति में सक्रिय हो गए।
13 दिन के मुख्यमंत्री रहे नरेशच्रद चन्द्र
सारंगढ़ की बात करें तो 1952 में हुए पहले चुनाव में सारंगढ़ के राजा नरेशचंद्र सिंह विधायक चुने चुने गए। तीन बार की विधायक रहे। इस दौरान 3 से 25 मार्च 1969 तक 13 दिनों के लिए अविभाजित मध्यप्रदेश का मुख्यमंत्री भी उन्हें बनाया गया। वहीं राजा नरेशचंद्र की पत्नी रानी ललिता देवी भी 1968 में पुसौर से विधायक बनी। मध्यप्रदेश में निर्विरोध चुन कर जाने वाली संभवतः वे अकेली महिला थीं। इसके बाद में उनकी बेटियों ने राजनीति का रुख किया। कमला देवी , रजनीगंधा और पुष्पा देवी सिंह विधायक और सांसद रहीं।
छत्तीसगढ़ में भूपेश कैबिनेट में मंत्री टीएस सिंहदेव के पिता एमएस सिंहदेव अविभाजित मध्यप्रदेश के मुख्य सचिव रहे। साथ ही योजना आयोग के उपाध्यक्ष की भी जिदारी संभाली। इसी तरह देवेंद्र कुमारी सिंहदेव विधायक और सिंचाई मंत्री बनीं। लेकिन जब अंबिकापुर की सीट आरक्षित हो गई तो राज परिवार के सदस्यों ने चुनावी राजनीति से दूरी बना ली। साल 2008 में सीट जब फिर से सामान्य हुई तो टीएस सिंहदेव ने मैदान संभाला। टीएस सिंहदेव ने बीजेपी के अनुराग सिंहदेव को 980 वोटों से परास्त किया और 2013 के चुनाव में फिर से उन्होंने अनुराग सिंहदेव को 19558 वोटों से हराया। इसके बाद के चुनाव में भी सिंहदेव को जीत मिली और वे विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष बनाए गए। इसके बाद के चुनाव में टीएस सिंहदेव का मुकाबला फिर से अनुराग सिंहदेव से ही हुआ जिसमें वे विजयी रहे और मंत्री बने।
1967 में रामचंद्र सिंहदेव बने 16 विभागों के मंत्री
सरगुजा के ही राजपरिवार से जुड़े कोरिया रियासत के रामचंद्र सिंहदेव सत्ता की राजनीति से दूर रहे। वे सत्यजीत रे की संगत में थे। और फोटोग्राफी के साथ दूसरा व्यवसाय संभाल ते रहे। बाद में रामचंद्र सिंहदेव छह बार चुनाव जीत कर विधायक और मंत्री बने। उन्हें छत्तीसगढ़ का पहला वित्त मंत्री होने का भी गौरव प्रप्त है। उनके निधन के बाद अब उनकी भतीजी अंबिका सिंहदेव कांग्रेस की सक्रिय नेता हैं।
जशपुर राजघाराने के थे दिलीप सिंह जूदेव
जशपुर राजघराने के विजयभूषण सिंहदेव 1952 और 1957 में विधायक रहे इसके बाद 1962 में रायगढ़ से सांसद चुने गए। बाद में इस इलाके की कमान कथित धर्मांतरण के ख़िलाफ़ घर वापसी का कार्यक्रम चलाने वाले दिलीप सिंह जूदेव ने संभाली। जूदेव पहली बार 1988 तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह के खिलाफ विधानसभा का उपचुनाव लउ़कर चर्चा में आए थे। अर्जुन सिंह से भले ही वे चुनाव हार लेकिन जिस तरह से जूदेव ने उन्हें चुनौती दी थी उसी के चलते हारने के बाद भी जूदेव का विजय जुलूस निकाला। बाद में जूदेव ने 1989 में जांजगीर से सांसद बने। 1991 में वे चुनाव हारे तो 1992 में भाजपा ने उन्हें राज्यसभा का सदस्य बनाया। इसके बाद वे केंद्र में मंत्री बने। 2003 में छत्तीसगढ़ में मुख्यमंत्री पद के दावेदार थे लेकिन पैसा खुदा तो नहीं लेकिन खुदा से कम भी नहीं यह कहते कथित तौर पर रिश्वत लेते पकड़े जाने के बाद वे हाशिये पर चले गए। 17 नवंबर 2003 को उन्होंन मंत्री पद भी छोड़ दिया। हालांकि 2009 में वे बिलासपुर से सांसद चुने गए। 14 अगस्त 2013 को उनका निधन हो गया। इसके बाद जूदेव राजपरिवार से रणविजय सिंह जूदेव भाजपा से राज्यसभा का सांसद बने। दिलीप सिंह जूदेव के बेटे युद्धवीर सिंह जूदेव भी दो बार विधायक रह चुके हैं।
खैरागढ़ के राजा रहे विधायक और सांसद
खैरागढ़ के राजा वीरेंद्र बहादुर सिंह पहले विधायक बने और फिर सांसद भी। रानी पद्मावती भी चुन कर विधानसभा पहुंचीं। परिवार के उत्तराधिकारी शिवेंद्र बहादुर सिंह लोकसभा के प्रत्याशी बने तो उनकी पत्नी गीतादेवी सिंह भी विधायक बनीं। परिवार की रश्मिदेवी सिंह भी राजनीति के मैदान में सक्रिय रही। बस्तर में देवताओं की तरह मान्य राजा प्रवीरचंद सिंहदेव 1957 में पहली बार विधायक बने थे। लेकिन पुलिस की गोली से उनकी मौत हो गइ। इसके परिवार राजनीति से दूर हो गया।
उत्तरप्रदेश में रियासत और सियासत की जुगलबंदी
उत्तरप्रदेश में भी रियासत और सियासत की जुगलबंदी देखी जाती रही है। इलाहाबाद और प्रतापगढ़ के रजवाड़ों ने देश को प्रधानमंत्री , विदेश मंत्री और राज्यपाल तक दिए थे। हालांकि माहौल बदला तो राजघरानों की राष्ट्रीय स्तर की राजनीति यूपी में ही सिमट गइ। कुछ रियासतों की सियासत अब ब्लॉक और जिला पंचायत स्तर तक होती है तो किसी ने सियासत से दूरी बना ली।
मांडा राजघराने के वीपी सिंह बने पीएम
उत्तरप्रदेश के मांडा खास ब्लॉक मुख्यालय से राजमहल 300 मीटर की दूरी पर है। यहां कभी देश की राजनीति की दिशा तय होती थी। इसी राजघराने के वीपी सिंह देश के प्रधानमंत्री बने। एक दौर था जब चुनाव की घोषणा होते ही राजमहल में उत्सव सा माहौल नजर आता था। हालांकि अब वहां सन्नाटा रहता है। वीपी सिंह के निधन के बाद उनके बड़े पुत्र अभय प्रताप सिंह ने सियासत को आगे बढ़ाने की कोशिश की लेकिन सफलता नहीं मिली। वे राजनीति से दूर व्यवसाय कर रहे है।
बेटी ने संभाली कालाकांकर विरासत
आजादी की लड़ाई में योगदान देने वाले कालाकांकर राजघराने का राजनीति से गहरा रिश्ता रहा है। यह राजघराना कांग्रेस का गढ़ भी कहा जाता है। इस स्टेट के राजा रामपाल सिंह कांग्रेस के संस्थापक सदस्य थे। । राजा दिनेश सिंह1971 में सांसद चुने गए। कुंडा क्षेत्र उस समय रायबरेली क्षेत्र से जुड़ा था। राजा दिनेश सिंह पूर्व प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के करीबी थे। इंदिरा गांधी का करीबी होने के नाते उन्हें केंद्रीय मंत्रीमंडल में भी स्थान मिला। मिली। उनके निधन के बाद पुत्री राजकुमार रत्ना सिंह ने पिता की विरासत संभाली। वे तीन बार लोकसभा की सदस्य चुनी गईं।
सियासी जमीन बचाने की जद्दोजहद
प्रतापगढ़ किले के राजा अजीत प्रताप सिंह 1962 में जनसंघ के टिकट पर लोकसभा पहुंचे तो तीन बार कांग्रेस से विधायक मंत्री रहे। उनके पुत्र राजा अभय प्रताप सिंह भी राजनीति में सक्रिय रहे। जनता दल से चुनाव जीतकर लोकसभा में पहुंचे। प्रदेश की सियासत के साथ राष्ट्रीय स्तर की राजनीति में भी प्रतापगढ़ किला का दबदबा रहा है। हालांकि राजा अनिल प्रताप सिंह कई बार विधानसभा का चुनाव लड़े लेकिन कामयाबी नहीं मिली।
अब भी सक्रिय भदरी राजघराना
भदरी राजघराने की बात करें तो प्रदेश औ देश में लोगों के सामने राजाभैया का नाम सामने आ जाता है। भदरी राजघाराने के के राजा राय बजरंग बहादुर सिंह हिमाचल प्रदेश के राज्यपाल बने। तो वहीं अपने बाबा की सियासत को मजबूती से आगे बढ़ाते रघुराज प्रताप सिंह उर्फ राजभैया 1993 में पहली बाद निर्दलीय प्रत्याशी के रुप में विस चुनाव जीते। इसके बाद वह विधानसभा का हर चुनाव जीतते रहे। प्रदेश की भाजपा और सपा सरकार में वे कैबिनेट मंत्री भी रह चुके हैं। कुंडा विधानसभा के साथ ही जिले की सियायत में राजाभैया का खासा दखल है।
ब्लाक तक सीमित रहा दिलीपपुर राजघराना
दिलीपपुर राजघराना में संपत्ति को लेकर कानूनी लड़ाई में उलझा रहा। इस किले की सियासत महज ब्लॉक प्रमुखए बीडीसी और प्रधान तक ही सिमट कर रह गई।जबकि कभी राजा अमरपाल सिंह विधान परिषद सदस्य हुआ करते थे।राजा सूरज सिंह व रानी सुषमा सिंह दिलीपपुर की प्रधान बनी। दिलीपपुर राजघराने की राजकुमारी भावना सिंह विरासत में मिली सियासत को आगे बढ़ाने के लिए तैयार हैं लेकिन पारिवारिक हालात ने उन्हें सोचने पर मजबूर कर दिया।