सुशासन बाबू के राज में सुरक्षित नहीं कलम के सिपाही, पत्रकार राजदेव से विमल तक सबकी एक ही कहानी!

journalist Vimal Yadav

बिहार में सुशासन बाबू के नाम से मशहूर सीएम ​नीतिश कुमार नए गठबंधन इंडिया के साथ मिलकर 2024 में पीएम बनने का सपना देख रहे हैं, लेकिन नीतिश के राज में सुशासन नहीं है। यहां बिहार में कलम के सिपाही सुरक्षित नहीं हैं। हाल ही में पटना स्थित अररिया के रानीगंज में दिनदहाड़े दैनिक अखबार के पत्रकार विमल यादव की हत्या कर दी गई। अपराधियों का हौसला देखिए उन्होंने घर का दरवाजा खुलवाया और जैसे ही पत्रकार विमल गेट पर आए उन्हें सीने में गोली मार दी।

बिहार में किसी मीडियाकर्मी की पहली हत्या नहीं है। इससे पहले भी कई मीडियाकर्मियों को सच उजागर करने की सजा मिली है। इसके पहले भी पत्रकारों पर जानलेवा हमले हुए है। कई को मौत के घाट उतार दिया गया। पत्रकारों पर लगातार होने वाले जानलेवा हमले और हत्याओं ने साबित कर दिया है कि माफिया, पुलिस और भ्रष्ट नेताओं के आगे किसी की नहीं चलती। इस देश में इनकी कितनी चलती है और पत्रकार कितने असुरक्षित हैं।

अब तक कई पत्रकारों को उतार दिया मौत के घाट

बिहार का अररिया जिला वैसे तो अक्सर चर्चा में रहता है। इस बार यहां एक पत्रकार की हत्या का मामला सामने आया है। पत्रकार विमल कुमार यादव की हत्या पर सीएम नीतीश कुमार की सुशासन बाबू वाली छवि खतरे में पड़ती दिखाई दे रही है। सीएम नीतीश कुमार ने इस घटना पर प्रतिक्रिया देते हुए दुख जताया है। इतना ही नहीं अपराधियों पर कठोर कार्रवाई करने का वादा किया। वहीं विपक्ष को तो जैसे
सरकार को घेरने के लिए बैठे बिठाए ​मुद्दा मिल गया। विपक्ष लगातार हमलावर है। यह हत्याकांड इसलिए भी सुर्खियों में है। क्योंकि भारत में पत्रकारों को उनकी आवाज दबाने और कमल तोडने के लिए अक्सर हमले झेलना पड़ते हैं। लगातार होने वाले इन हमलों ने फ्री प्रेस और लोकतंत्र के चौथे स्तंभ के खोखलेपन को भी उजागर कर दिया है। देश के छोटे-छोटे शहरों में काम करने वाले पत्रकारों की हत्या और उन पर हुए प्राणघातक हमले लोकतंत्र और फ्री प्रेस की दुहाई के मुंह पर करारा तमाचा हैं। पत्रकार की हत्या को मामूली नहीं की अपराध नही कीा जा सकता। असल में वो उस सच की हत्या होती है जिसे सफेदपोश अपराधी छुपाना चाहते हैं।

2016 में हुई थी राजदेव रंजन की हत्या

विमल यादव हत्याकांड ने पत्रकार राजदेव रंजन हत्याकांड की याद ताजा कर दी है। राजदेव को 13 मई 2016 में सिवान रेलवे स्टेशन के पास गोली मारी गई थी। इसतरह उनकी हत्या कर दी गई थी। पत्रकार की हत्या के इस मामले में सिवान के पूर्व सांसद शहाबुद्दीन सहित 8 आरोपियों के खिलाफ एफआईआर दर्ज की गई थी। इसमें से एक आरोपी को कोर्ट ने किशोर घोषित कर किशोर न्याय परिषद को सौंपा था। वहीं, दूसरी ओर इस मामले में अपराधी रहे पूर्व सांसद शहाबुद्दीन की मौत हो चुकी है। छह दूसरे आरोपी अब भी जेल की सजा काट रहे हैं। बिहार उन राज्यों में शामिल है जहां अब तक कई पत्रकारों पर जानलेवा हमले किये गये। जिनमे से कई पत्रकारों की निर्मम हत्या कर दी गई। जबकि कई मामले ऐसे भी है जो सामने ही नहीं आ सके।

2022 में बेगूसराय जिले में वेब पोर्टल के पत्रकार की हत्या

आपको याद होगा साल 2022 में बेगूसराय जिले में एक वेब पोर्टल के पत्रकार सुभाष कुमार को गोली मारी गई थी। बदमाशों ने गोलीमार कर उनकी हत्या कर दी थ। यह वारदात परिहारा ओपी क्षेत्र के सांखू गांव की है। जहां गोली लगने के बाद सुभाष कुमार को इलाज के लिए पीएचसी में भर्ती भी कराया गया, लेकिन तब तक उसकी सांस थम चुकी थी। कथित तौर पर पत्रकारिता के माध्यम से सुभाष लगातार रेत माफिया के खिलाफ खबर चला रहे थे। जिसके चलते रेत माफिया ने इस तरह की घटना को अंजाम दिया।

सुपौल में तो पत्रकार को पीटपीट कर मारडाला

इसी तरह 2022 में हीं बिहार के सुपौल में एक और पत्रकार की निर्मम तरीके से हत्या की गई थी। ये थे वरिष्ठ पत्रकार महाशंकर पाठक,जिनकी पीट-पीट कर हत्या कर दी गईं। इससे एक साल पहले 2021 में पत्रकार बुद्धिनाथ झा की हत्या का मामला सामने आया था। नवंबर 2021 में स्थानीय पत्रकार बुद्धिनाथ झा उर्फ अविनाश की हत्या की गई थी। परिजन बताते हैं कि अविनाश झा का घर के पास के अपहरण किया गया था। इसके बाद हत्या की गई थी। वहीं बिहार के ही पूर्वी चंपारण में अगस्त 2021 में एक और पत्रकार मनीष सिंह को बेरहमी से मार दिया गया। करीब तीन दिन से लापता रहे युवा पत्रकार मनीष कुमार सिंह का शव एक गड्ढे में मिला था। हत्या उस समय की गई जब वो घर से दावत खाने के लिए निकले थे।

देश में 25 साल में 79 पत्रकारों की हत्या

भारतीय प्रेस परिषद के आंकड़े बताते हैं देश में पिछले 25 साल के दौरान 79 पत्रकार अपना काम करते हुए जान से हाथ धो बैठे हैं। सूदूर इलाको में काम करने वाले पत्रकार अक्सर छोटी-छोटी खबरों के लिये अपने जान संकट में डालते हैं। उग्रवाद ग्रस्त या नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में ये पत्रकार किस तरह काम करते हैं। कभी किसी ने इस पर विचार नहीं किया होगा। अपराधिक तत्व, माफिया ही नहीं राजनीतिक दलों और प्रदर्शनकारियों पर भी पत्रकारों पर हमले के आरोप लगे हैं। इन हमलों के बाद स्थानीय पुलिस और सुरक्षा व्यव्स्था भी सवालों के घेरे में है। इन पर पत्रकारों के खिलाफ हुई। हिंसा के मामलों में बाहुबलियों और माफिया के दबाव में कार्रवाई नहीं करने का आरोप लगा। आजादी के बाद से अब तक लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ यानी मीडिया की सुरक्षा के लिए कोई सख्त कानून नहीं बन सका है। देश में आज भी अंग्रेजों के जमाने का कानून पीआरबीपी एक्ट 1867 कुछ मामूली फेरबदल के साथ लागू है। आखिर कब तक मीडियाकर्मियों को सच को लिखने बोलने और दिखाने की सजा मिलती रहेगी।

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