भगवान बिरसा मुंडा की कहानी..कभी ईसाई थे बिरसा मुंडा…गोरों के अत्याचार से हुआ मोहभंग…बाद में कहलाए ‘भगवान’

भगवान बिरसा मुंडा की कहानी..कभी ईसाई थे बिरसा मुंडा…गोरों के अत्याचार से हुआ मोहभंग…बाद में कहलाए ‘भगवान’

आदिवासी समाज में बिरसा मुंडा ऐसे नायक रहे हैं जिन पर जनजातीय लोग आज भी गर्व करते हैं। उन्हें गर्व से याद किया जाता है। आदिवासी हितों की खातिर संघर्ष करने वाले बिरसा मुंडा ने ब्रिटिश शासन से भी लोहा लिया था। यह उनके योगदान का ही परिणाम है कि उनकी तस्वीर संसद के संग्रहालय में लगाई गई है। यह सम्मान जनजातीय समुदाय में अब तक केवल बिरसा मुंडा को ही मिल सका है। बिरसा मुंडा की जन्मस्थली झारखंड के खूंटी ज़िले में है। बिरसा मुंडा के जन्म के वर्ष और तारीख को लेकर अलग-अलग जानकारी उपलब्ध है, कुछ स्थानों पर बिरसा मुंडा की जन्म तिथि 15 नवंबर 1875 उल्लेखित है। हालांकि कुमार सुरेश सिंह की बिरसा मुंडा पर लिखी एक शोध आधारित पुस्तक के मुताबिक बिरसा मुंडा का जन्म 1872 को हुआ था। इसके अतिरिक्त कई अन्य दिलचस्प जानकारियां भी इस पुस्तक में उपलब्ध हैं। पुस्तक में कई स्रोत के जरिए बताया गया है कि बिरसा मुंडा का परिवार ईसाई धर्म को स्वीकार चुका था। बिरसा मुंडा के परिवार में उनके पिता के छोटे भाई ईसाई धर्म स्वीकार कर चुके थे। पिता सुगना और उनके छोटे भाई भी ईसाई धर्म स्वीकार कर चुके थे। यहां तक कि उनके पिता ईसाई धर्म प्रचारक भी बने। धर्म परिवर्तन के बाद बिरसा का नाम दाऊद मुंडा और पिता का नाम मसीह दास रखा गया।

झारखंड को अस्तित्व में आए 15 साल हो चुके हैं, लेकिन इस राज्य का बीच इतिहास में सदियों पहले ही अंकुरित हो चुका था। ब्रिटिश राज में जब झारखंड के आदिवासी क्षेत्र में सामंती व्यवस्था अपनी जड़ें गहरी करने में लगी थीं। तब आदिवासियों की परंपराओं और जमीनी व्यवस्था में दखल बढ़ गया। नई स्थायी बंदोबस्ती व्यवस्था के चलते आदिवासियों में आर्थिक शोषण और सामाजिक अशांति के बीज बो दिए गये थे। ऐसे ही दौर में मुंडा जनजाति के बीच बिरसा मुंडा का जन्म हुआ था। बिरसा मुंडा ने अरसे पहले अंग्रेजी हुकूमत के अस्तित्व को नकारते हुए विद्रोह काबिगुल बजा दिया था। 1857 की क्रांति के अंग्रेज सरकार के खिलाफ यह ऐसा पहला महासंग्राम था, जिसे उलगुलान नाम दिया गया।

खुंटकट्टी व्यवस्था के चलते थी अंग्रेजों से नफरत
मुंडा जनजाति में 1789 से 1820 के बीच अंग्रेजी शासन के खिलाफ विद्रोह की भावना सुलग रही थी। इसकी वजह यह थी कि खुंटकट्टी व्यवस्था पर अंग्रेजी सरकार ने चोट थी। खुंटकट्टी छोटानागपुर की मुंडा जनजाति के बीच पाई जाने वाली एक प्राचीन प्रथागत संस्था थी। यह एक ही किल्ली के सभी जनजाति परिवारों के बीच जमीन के स्वामित्व को प्रदान करती है। जमीन को जिन्होंने खेती योग्य बनाया, जंगल साफ किये थे उन्हें अधिकार देती है। पंचपरगना के मैदानी क्षेत्रों में जनजाति समाज की इसी खुंटकट्टी व्यवस्था पर अंग्रेज शासन ने प्रहार किया था। जिसके चलते मुंडा जनजाति के लोग दक्षिण स्थित खूंटी के साथ पूर्वी तमाड़ की पहाड़ियों के बीच बसने को मजबूर हुए।

इसके बाद छोटा नागपुर के बुंडू, सिल्ली, तमाड़ के साथ पंचपरगना के कई कोलियों ने कोल विद्रोह के दौरान अपने हथियार उठा लिए थे। साल 1932 में विद्रोहियों को आखिरकार आत्मसमर्पण करने के लिए मजबूर होना पड़ा। उधर अंग्रेज सरकार को भी जनजातीय क्षेत्र के विद्रोहियों के साथ समझौता करना पड़ा। अंग्रेजों की नीति समाज को बांटने उनका दमन करने की थी। जिसने आदिवासियों के मन में अंग्रेजों के खिलाफ नफरत के बीज अंकूरित कर दिये।

मिशनरियों की आलोचना के चलते हुए स्कूल से बेदखल
1850 से जनजाति बहुल क्षेत्र में ईसाई धर्म का जोरों पर प्रचार किया जा रहा था। इस दौर में 1875 में बिरसा मुंडा का जन्म झारखंड के खूंटी ज़िले के चलकद गांव में सुगना मुंडा और कर्मी मुंडा के घर में होता है। शुरुआत में मुंडा के परिवार ने ईसाई धर्म को अपना लिया था। हालांकि कुछ समय बाद ईसाइयों और ईसाई धर्म से उनका मोहभंग हो गया। बिरसा मंंडा दरअसल ईसाई मिशनरियों के आदिवासियों की जमीनों को कब्जाने के पैंतरे पहचान गये ​थे। मिशनरियों की आलोचना के चलते ही उन्हें स्कूल से निकाला गया था। युवा अवस्था में ही बिरसा मुंडा सरदार आंदोलन से जुड़ गये। इस आंदोजन का नारा था साहब-साहब एक टोपी हैं यानी सभी अंग्रेज गोरे एक जैसे ही होते हैं। जो सत्ता की टोपी होते हैं।

बिरसा बने ईश्वर के दूत लोग मानने लगे भगवान
बिरसा मुंडा ने ईसाई धर्म त्यागकर साल 1891 से 1896 तक धर्म और नीति के साथ दर्शन का ज्ञान प्राप्त किया। सरदार आंदोलन के साथ वे धर्म और नीति के भी उपदेश देते थे। जिससे बड़ी संख्या में लोग उनके अनुयायी बन गये। बिरसा मंडा की लोकप्रियता बढ़ने पर उनके अनुयायी ‘बिरसाइत’ भी कहलाने लगे थे। बिरसा मुंडा को ईश्वर का दूत और भगवान तक माना जाने लगा था।

वन के बकाया राशि के लिए चलाया आंदोलन
1895 में वन संबंधी बकाया राशि की माफी का आंदोलन चला। बिरसा मुंडा ने इस बकाया राशि को माफ करने की मांग को लेकर चाईबासा तक की यात्रा भी की। वे गांवों से रैयतों को एकजुट कर चाईबासा ले गये, लेकिन अंग्रेज सरकार ने बिरसा ​मुंडा की इस मांग को ठुकरा दिया। ऐसे में बिरसा ने उस समय ऐलान कर दिया कि भारत में अंग्रेस सरकार खत्म। अब आदिवासियों का हाोगा जंगल और जमीन पर अपना राज। बिरसा मुंडा ने अबुआ दिसुम, अबुआ राज का नारा भी दिया था, जिसका अर्थ है हमारे देश पर हमारा राज होगा। 9 अगस्त 1895 के दिन चलकद में पहली बार बिरसा मुंडा को अंग्रेजों ने गिरफ्तार करने का प्रयास किया लेकिन उनके अनुयायियों ने अंग्रेज पुलिस से उन्हें छुड़ाकर कर वापस जाने को मजबूर कर दिया। इसके बाद 16 अगस्त 1895 को गिरफ्तार पहुंचे पुलिस के जवानों को जनजाति वर्ग के लोगों को बिरसा के सैंकड़ों अनुयायियों ने भगा दिया था। लेकिन आंदोलनकारी को कुचलने के लिए 8 जनवरी, 1900 को डोम्बारी पहाड़ियों पर जमी बिरसाइत के जत्थे को अंग्रेज सेना ने घेर लिया। विद्राहियों की मांग थी अंग्रेज अपने देश वापस जाओ। इस दौरान विद्रोहियों और फौज के बीच भीषण युद्ध हुआ जिसमें में 200 मुंडा मारे गए। उसके बाद भी अंग्रेज बिरसा को पकड़ नहीं पाए।

प्रकाश कुमार पांडेय

 

 

 

 

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