देश के विभिन्न राज्यों में राजनीतिक दलों की ओर से भिन्न भिन्न राजनेताओं की जयंती मनाई जाने लगी है। चाहे वो महाराष्ट्र में बाला साहेब ठाकरे की जयंती हो या दिल्ली सुभाष चंद्र और अन्य की जयंती। लेकिन स्वर्गीय कर्पूरी ठाकुर की जयंती ने सबसे अधिक सुर्खियां बटोरी हैं। दरअसल केंद्र सरकार की ओर से उन्हें भारत रत्न देने का ऐलान किया गया है। वे एक महान समाजवादी नेता ही नहीं थे बल्कि उन्हें कांग्रेस को चुनौती देने वाले सबसे प्रमुख विपक्षी नेता भी माना जाता था। अब जदयू और भाजपा बिहार के महान समाजवादी नेता कर्पूरी ठाकुर की विरासत को कब्जाने के लिए एक दूसरे से प्रतिस्पर्धा करते नजर आ रहे हैं। हालांकि नेताओं की जयंती को मनाने में निहित सम्मान पर संदेह नहीं किया जा सकता लेकिन इससे इनकार भी नहीं किया जा सकता है कि इन प्रयासों के पीछे राजनीति ही मूल है।
स्वर्गीय कर्पूरी ठाकुर का जन्म एक गरीब परिवार में हुआ था। उन्होंने 1950 से 1980 के दशक के बीच बिहार की राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। लंबे राजनीतिक जीवन के दौरान वे दो बार बिहार के सीएम और एक बार डिप्टी सीएम रहे। पहले चरण में उन्हें अधिकांश जाति समूहों का समर्थन हासिल हुआ लेकिन दूसरे कार्यकाल में उन्हें ओबीसी के नेता के रूप में पहचाना गया था। तीसरे चरण में वे अपने लिए एक समर्थक.आधार की तलाश में थे। खासकर अति पिछड़ा वर्ग, दलितों और गरीबों के बीच इसका खासा प्रभाव था। हालांकि दलितों से लगाव के चलते प्रभुत्वशाली ओबीसी का एक वर्ग उनसे दूर हो गया था।
अब जेडीयू और आरजेडी दोनों ही दल वैसे तो बिहार की सत्ता में साझेदार हैं, लेकिन कर्पूरी ठाकुर की विरासत को साझा करने को तैयार नहीं, दोनों अपने अपने को उनकी विरासत का स्वाभाविक दावेदार बता रहे हैं। इस बीच बीजेपी भी बिहार में बड़े ओबीसी वर्ग तक अपना संदेश पहुंचाने की जुगत में कड़ी मेहनत करती नजर आ रही है। यहीं वजह है कि केन्द्र की बीजेपी सरकार ने कर्पूरी ठाकुर की 100वीं जयंती पर उन्हें भारत रत्न देने की घोषणा कर दी। इतना ही नहीं उनके नाम से 100 रुपए का विशेष सिक्का भी जारी किया गया। दरअसल यह माना जाता है कि बिहार जैसे बडे़ राज्य में जो भी दल कर्पूरी की विरासत को कब्जाने में सफल होगा वहीं ओबीसी वर्ग मतदाताओं की गोलबंदी कर सकता है। क्योंकि कर्पूरी ठाकुर ओबीसी के मसीहा के रूप में देखे जाते हैं। खायसतौर पर बिहार की राजनीति में कर्पूरी ठाकुर का कद इतना बड़ा है कि इसका लाभ लेने के लिए लालू प्रसाद और नीतीश कुमार जैसे कई दूसरे नेताओं को बार बार सामाजिक न्याय के सिद्धांतों के वास्तविक अनुयायी होने का दावा करना पड़ रहा है।
सामाजिक न्याय के सिद्धांत के लिए कर्पूरी ने हमेशा लड़ाई लड़ी। कर्पूरी ही वे व्यक्ति हैं जिन्होंने ओबीसी आरक्षण की हमेशा नीति सामने रखी थी। अब इसे कर्पूरी फॉर्मूला भी कहा जाने लगा है। कर्पूरी ठाकुर ने ही ओबीसी को निम्न और उच्च वर्गों में विभाजित किया था। यहा यह भी महत्वपूर्ण है कि बिहार में हाल ही में हुई जाति जनगणना के अनुसार बिहार की 36 प्रतिशत आबादी निम्न ओबीसी जातियों की है। जिसमें लौहार, कहार, कुम्हार, नाई, तेली शामिल है। जबकि 27 प्रतिशत दूसरी आबादी उच्च ओबीसी जातियों की है। जिसमें यादव, कुर्मी, कोइरी आदि शामिल हैं। इससे ओबीसी की संख्या करीब 63 प्रतिशत के आसपास हो गई है। बिहार में किसी भी दल को अपनी सियासत और चुनाव में सफलता हासिल करने में ओबीसी वोटों की गोलबंदी करना महत्वपूर्ण है। लोकसभा चुनाव 2024 में भाजपा और उसके सहयोगी दलों को बिहार में चुनौती देने के लिए जेडीयू और आरजेडी ही नहीं कांग्रेस और वाम दलों के बीच सीट बंटवारे के प्रयास किये जा रहे हैं। इसमें तीनों प्रमुख दल जेडीयू, आरजेडी और बीजेपी में जब भी साथ आए हैं। चुनावी सियासत में उनका वजन बड़ा है। क्योंकि दो के गठबंधन में ओबीसी वर्ग के वोट एकजुट करने में मदद मिलती रही है। ऐसे में जेडीयू और आरजेडी को ओबीसी को समर्थन मिला है लेकिन पिछले कुछ साल के दौरान हुए दूसरे चुनाव में बिहार में निम्न ओबीसी जातियों ने भाजपा का साथ दिया।
विधानसभा चुनाव की तुलना में लोकसभा चुनावों में यह अधिक दिखाई देता है। साल 2014 की बात करें तो उस समय तीनों दलों ने अलग अलग रहकर लोकसभा चुनाव चुनाव लड़ा था। उस दौर में उच्च ओबीसी वर्ग के 49 प्रतिशत मतदाताओं न आरजेडी को चुना तो 21 प्रतिशत ने भाजपा और 14 प्रतिशत ने जेडीयू पर भरोसा जतया। जबकि निम्न ओबीसी वर्ग के 10 प्रतिशत वोट आरजेडी को, बीजेपी को 52 प्रतिशत और और 18 प्रतिशत जेडीयू को मिले थे। वहीं पांच साल बाद 2019 के चुनाव में जेडीयू और भाजपा के बीच गठबंधन था। उस समय 42 प्रतिशत उच्च और करीब 75 प्रतिशत निम्न ओबीसी वोट जुटाने में यह पार्टियां कामयाब रही थीं।वहीं आरजेडी गठबंधन 41 प्रतिशत उच्च ओबीसी के साथ 14 प्रतिशत निम्न ओबीसी वोट पाने में कामयाब रहा। लेकिन 2015 में हुए विधानसभा के चुनाव के दौरान आरजेडी और जेडीयू ने बीजेपी के खिलाफ एक गठबंधन बनाया था। तब उसे उच्च ओबीसी वर्ग का 63 प्रतिशत और निम्न ओबीसी वर्ग को 35 प्रतिशत वोट मिला था। जबकि भाजपा गठबंधन को 16 और 42 प्रतिशत के वोट ही हासिल हुए थे।