खेले मसाने में होली खेले दिगंबर.. इस गीत के बोल से जाहिर है कि ये गीत मसान की होली के लिए ही लिखा और गाया गया है। बात थोडी अटपटी जरूर लगेगी लेकिन जिस तरह भारत में कई तरह की होली मनाई जाती है उन्ही में से एक प्रकार है काशी की मसान की होली।
- काशी जहां जलते हैं मुर्दे वहां चिता की राख से खेलते हैं होली
- रंगभरी एकादशी से हो जाती है होली की शुरुआत
- एक तरफ मातम, दूसरी तरफ होली का उमंग
- हरिश्चंद्र घाट और मणिकर्णिमा घाट पर होली
- चिता की भस्म से खेली जाती है होती
काशी को बाबा विश्वनाथ की नगरी कहा जाता है। यहां होली की शुरुआत रंगभरी एकादशी से ही हो जाती है। मान्यता है कि काशी में मणिकर्णिका और हरिश्चंद्र घाट पर भगवान शिव भी विचित्र होली खेलते हैे। मोक्षदायिनी काशी में होली की परंपरा सबसे अलग है। कहा जाता है काशी के हरिश्चंद्र घाट और मणिकर्णिमा घाट पर हर दिन चिताएं जलती रहती हैं। शवयात्रा का सिलसिला लगातार पूरे दिन जारी रहता है। मातम पसरे इस घाट में साल का एक ऐसा दिन आता है। जब यहां मातम की जगह उल्लास नजर आता है। यहां की होली अलग जरह से खेली जाती है। यहां की होली रंगों से नहीं बल्कि चिता की भस्म से खेली जाती है। यदि आपसे कहा जाए कि रंग-गुलाल नहीं बल्कि श्मशान घाट पर चिता की भस्म से होली खेले तो यह सुनकर आप शायद भयक्रांत हो जाएंगे। लेकिन काशी में ऐसी ही विचित्र होली खेली जाती है। दरअसल मान्यता है कि भगवान शिव यहां रंग-गुलाल नहीं बल्कि चिताओं के भस्म से होली खेलते हैं। काशी में मसाने की होली की परंपरा की शुरुआत भगवान शिवजी से मानी जाती है।
शिव ने खेली थी भूत, प्रेत, पिशाच, यक्ष गन्धर्व के साथ होली
प्राचीन मान्यता के अनुसार रंगभरी एकादशी के दिन भगवान शिव माता गौरा का गौना कराने के बाद उन्हें काशी लेकर आए थे। तब उन्होंने अपने गणों के साथ रंग-गुलाल के साथ होली खेली थी। लेकिन वे श्मशान में बसने वाले भूत, प्रेत, पिशाच, यक्ष गन्धर्व आदि के साथ होली नहीं खेल पाए। ऐसे में रंगभरी एकादशी के दूसरे दिन शिवजी ने श्मशान में बसने वाले अपने प्रिय भूत-पिशाचों के साथ होली खेली। रंगभरी एकादशी से लेकर पूरे 6 दिनों तक यहां होली होती है। काशी के हरिश्चंद्र घाट में महाश्मशान नाथ की आरती के बाद इसकी शुरुआत होती है। यह परंपरा सालों से चली आ रही है। आज भी काशी के श्मशान घाट पर भक्तों में मसाने की होली खेलने को लेकर अलग ही उत्साह नजर आता है। हर साल लोग धूमधाम के साथ यहां मसाने में होली खेलने आते हैं। इस दिन चिता की राख और भस्म के साथ गुलाल से होली खेलते हैं।
काशी में होली की विचित्र और अनूठी परंपरा
इसी वजह से काशी में मसाने की होली जहां विचित्र और अनूठी मानी जाती है। वहीं यह इस बात का भी संदेश देती है कि शव ही अंतिम सत्य है और श्मशान जीवनयात्रा की थकान के बाद की अंतिम विश्रामस्थली है। जहां मथुरा में जहां लठमार, लड्डू मार और फूलों से होली खेली जाती है तो वहीं शिव की नगरी काशी में चिताओं की अग्नि की राख से होली मनाई जाती है। बता दें कि वाराणसी में रंगभरी एकादशी के दिन से होली का उत्सव शुरू हो जाता है। धार्मिक मान्यताओं के मुताबिक, वाराणसी के हरिश्चंद्र और मर्णिकर्णिका घाट पर भगवान भोले शंकर विचित्र होली खेलते हैं। वाराणसी के हरिश्चंद्र घाट और मर्णिकर्णिका घाट पर हर दिन चिताएं जलती हैं। होली के मौके पर यहां चिताओं की भस्म से होली खेली जाती है। जीवन के अंतिम और अटल सत्य से साक्षत्कार कराती यह श्मशान की होली जीवन के प्रति मोह का खत्म कर देती है। शिव जो दिगंबर हैं। जिन्हे माया मोह नहीं होता। शिव के चरित्र के विभिन्न पहलुओं में से एक है कि उनका श्रंगार ही चिता भस्म है। श्रंगार की वस्तु अगर भस्म है उससे दूरी क्यों। मसाने की होली में सब कुछ शिव मय और शवमय हो जाते हैं। भारत की संस्कृति के विभिन्न स्वरूपों और सनातनी परंपराओं के और भी कई रंग हैं लेकिन इस बेरंग होली की भी अपनी छटा है।