Diwali2022 : देश की अर्थव्यवस्था में पटाखों का इतना बड़ा योगदान, जानें आतिशबाजी से जुड़े राेचक तथ्य

जिस तरह दीपावली दीपक के बिना अधूरी है उसी तरह आतिशबाजी के बिना भी दीपोत्सव अधूरा ही लगता है। आतिशबाजी जैसा शब्द जेहन में आते ही दीपावली का दृश्य आखों के सामने खुद-ब-खुद आ जाता है। ऐसे में यह विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि समय के साथ आतिशबाजी का स्वरूप भले ही बदला हो, पटाखों की शक्ल भले ही बदली हो लेकिन इसकी परंपरा दीपावली जितनी ही पुरानी है। दीपावली के अवसर पर हम आपको बता रहे हैं आतिशबाजी से जुड़े रोचक तथ्य।

आधुनिक हुए पटाखे

समय के साथ आतिशबाजी का स्वरूप बदल गया है। हम कह सकते हैं कि पटाखे भी आधुनिक हो गए हैं। तरह-तरह के पटाखे बाजार में आते रहने से आतिशबाजी का परंपरागत स्वरूप बदलता गया। पहले पटाखों पर शोर था पर अब फुलझड़ी का जोर है। आतिशबाजी के बाजार में ग्राहकों की डिमांड इसकी पुष्टि है। बीते एक दशक से पटाखों की दुकान लगाने वाले इस्माइल बताते हैं कि अब तो युवाओं का भी जोर बम खरीदने पर नहीं होता। सभी फुलझड़ी, रोशनी, अनार और घिरनी की डिमांड करते हैं।

पटाखों की बिक्री और ब्रांड

जहां अधिक बिक्री की बात है तो लगभग सभी दुकानदार एक स्वर से अनार का नाम लेते हैं। पटाखा विक्रेता विश्वास बताते हैं कि सभी दुकानदार अनार की डिमांड को देखते हुए उसकी हर साइज रखते हैं। जिससे किसी को ग्राहक को दुकान से लौटना न पड़े। दुकानदार गुलफाम बताते हैं कि पहले के मुकाबले राकेट की बिक्री भी काफी कम हो गई है। क्योंकि राकेट को जलाने में तरह-तरह के खतरे सामने आए हैं। उनके मुताबिक चटाई बम की डिमांड भी काफी कम हो गई है। पटाखों में ब्रांड की बात करें तो सर्वाधिक डिमांड मुर्गाछाप पटाखों की रहती है। पटाखा विक्रेता बादशाह दो टूक कहते हैं कि मुर्गा छाप का नाम ही काफी है। उनके अनुसार 80 प्रतिशत पटाखे इसी ब्रांड के बिकते हैं। इसलिए सभी दुकानदार इसकी पूरी रेंज रखने की कोशिश करते हैं।

मशहूर है शिवकाशी की आतिशबाजी

भारत में पटाखा उत्पादन का आधा हिस्सा हिस्सा तमिलनाडु के शिवकाशी का ही है। औद्योगिक सूत्रों के मुताबिक शिवकाशी साल में अकेले ही 50 से 60 हजार टन का पटाखा उत्पादन करता है। जिस हिसाब से इसका टर्नओवर करीब 750 करोड़ रुपए के करीब होता है।

मचिस का कारखाना आतिशबाजी में बदला

तमिलनाडु के विरुधुनगर जिले के शिवकाशी में दो नौजवानों ने 1930 के दशक में माचिस का कारखाना लगाया था। यहां पटाखे और आतिशबाजी के सामान भी बनने लगे। आज यह देश में पटाखा निर्माण का सबसे बड़ा केंद्र शिवकाशी बन चुका है। हालांकि, इस साल दिवाली में दिल्ली सहित देश के कई राज्यों में पटाखों पर बैन लगाने से शिवकाशी के पटाखा इंडस्ट्री की हालत खराब है।

कब शुरू हुई आतिशबाजी

वैसे भारत में जंग के दौरान बारूद का इस्तेमाल पहली बार 1400 ईस्वी के आसपास शुरू हुआ। इस तरह भारत में पटाखों के शुरुआत का इतिहास भी इसी के आसपास का है। बारूद की खोज चीन में 11वीं सदी के आसपास हुई थी। कुछ ऐतिहासिक तथ्यों की मानें तो आतिशबाजी का पहला ऐतिहासिक प्रमाण 1443 के आसपास विजयनगर साम्राज्य में मिलता है। 18वीं सदी तक शासकों द्वारा दिवाली पर आतिशबाजी आम बात हो गई।

कोलकाता से कैसे शिवकाशी पहुंचा पटाखा

पटाखों व आतिशबाजी का पहला कारखाना 19वीं सदी में कोलकाता में स्थापित किया गया। कहा जाता है कि 1923 के आसपास यहीं की एक माचिस की फैक्ट्री में काम करने वाले शिवकाशी के दो नौजवान वर्कर अय्या नाडर और शणमुगा नाडर बाद में इस माचिस और आतिशबाजी की तकनीक को अपने होमटाउन लेकर गए और वहां इसकी शुरुआत की। यहीं से आतिशबाजी और पटाखों का भी निर्माण शुरू हुआ। अय्या नाडर ने 1925 में नेशनल फायरवर्क्स की स्थापना की।

दूसरे विश्वयुद्ध के बाद आयी तेजी

शिवकाशी चेन्नई से करीब 500 किमी दूर एक छोटा सा शहर है। साल 1939 में दूसरे विश्वयुद्ध के बाद जब पटाखों और आतिशबाजी के सामान के आयात पर रोक लग गई थी। तब यहां की इंडस्ट्री का वास्तविक विकास शुरू हुआ। 1939 के पहले शिवकाशी में गिने चुने कारखाने ही थे। देश में पटाखों की कमी होने की वजह से शिवकाशी से मांग काफी बढ़ गई। देश में अंग्रेज शासकों ने पटाखों के आयात पर रोक लगायी और घरेलू उद्योगों का विकास किया। इससे घरेलू पटाखा इंडस्ट्री को काफी फायदा हुआ। अब आजादी के बाद शिवकाशी पटाखों का देश का सबसे बड़ा केंद्र बन गया।

कितना है कारोबार

आज शिवकाशी में सैंकड़ों लाइसेंसधारी पटाखा कारखाने हैं। इन कारखानों से प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से करीब लाखों कामगारों को रोजगार मिला हुआ है। इनमें बड़ी संख्या में महिला और बच्चों की भी है। नाडर परिवार की 1942 में स्थापित स्टैंडर्ड फायर वर्क्स और श्री कालिश्वरी फायर वर्क्स आज देश की दो सबसे बड़ी पटाखा निर्माता कंपनियों में से एक है। इन कंपनियों के मुर्गा-ए, मोर-ए घंटी, गिलहरी, अनिल और स्टैंडर्ड ब्रांड पटाखे मशहूर हैं। भारत में करीब 90 फीसदी पटाखे शिवकाशी में ही बनते हैं। इनका सालाना टर्नओवर करीब 15 हजार करोड़ रुपए का है।
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