भारत का वह सपूत जिसने विदेशों में रहकर भी आजादी की अलख जगाए रखी, जानिए नेताजी सुभाषचंद्र बोस को!

आज यानी 2023 के भारत की अगर हम बात करें, तो एक नारा है जो सबसे अधिक प्रसिद्ध है, जिसके साथ किसी तरह का विवाद नहीं है और जो हरेक भारतवासी गर्व के साथ लगाता है। वह नारा है, ‘जय हिंद’ का। ये नारा उन्हीं नेताजी सुभाषचंद्र बोस का दिया हुआ है, जिन्होंने ‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा’ का नारा भी दिया था। वही नेताजी, जिनकी जिंदगी तो जितनी तूफानी रही, वह रही ही, मौत के ऊपर भी रहस्यों के घने बादल तिर रहे हैं। जो आज भी भारतीय राजनीति के एक बड़े केंद्र बने हुए हैं। वही नेताजी, जिनका 23 जनवरी को जन्मदिन भी है। आज हम उन्हीं नेताजी के कुछ अनछुए पहलुओं से आपको वाकिफ कराएंगे।

सबसे अलग थे नेताजी सुभाष बोस

भारत की आजादी के लिये संघर्ष करते हुये अनेक क्रान्तिकारी भारतीय शहीद हुए। ऐसे ही महान क्रान्तिकारी, भारतीय स्वतंत्रता सेनानी थे सुभाष चन्द्र बोस। एक ऐसा व्यक्तित्व जिसने अपने कार्यों से अंग्रेजी सरकार के छक्के छुड़ा दिये। इन्होंने अपने देश को आजाद कराने के लिये की गयी क्रान्तिकारी गतिविधियों से ब्रिटिश भारत सरकार को इतना ज्यादा आंतकित कर दिया कि वे बस इन्हें भारत से दूर रखने के बहाने खोजते रहे।

इन्होंने देश की आजादी के लिये देश के बाहर से ही संघर्ष जारी रखा और वह भारतीय इतिहास में पहले ऐसे स्वतंत्रता सेनानी हुए जिसने ब्रिटिश भारत सरकार के खिलाफ देश से बाहर रहते हुये सेना संगठित की और सरकार को सीधे युद्ध की चुनौती दी और युद्ध किया। इनके महान कार्यों के कारण लोग इन्हें ‘नेताजी’ कहते थे।

बंगाली लड़कियों के हार्टथ्रोब थे नेताजी

बंगाली भद्रलोक में सुभाष चंद्र बोस पसंदीदा और वांछित बैचलर थे। उनकी शादी के लिए न जाने कितने ही प्रस्ताव उनके घर आए, क्योंकि सुभाष बंगाल में हीरो थे। बंगालियों के लिए ऐसे आदर्श, जिन पर उन्हें नाज़ था। नेताजी वह शख़्स थे, जिसने आईसीएस जैसी शानदार ब्रिटिश-राज की नौकरी को ठोकर मार दी थी, जो देश में कम उम्र में किसी तूफ़ान की तरह कांग्रेस के शीर्ष नेताओं की कतार में शामिल हो गए थे।

देशभर के युवाओं में उनका ज़बर्दस्त क्रेज़ था। लंबे कद के आकर्षक सुभाष जीनियस, भद्र और आत्मविश्वास से ओत-प्रोत थे। बंगाली लड़कियों के लिए वह स्वप्नपुरुष थे, लेकिन उनका पथ गृहस्ती की तरफ नहीं जाता था, उनका रास्ता तो बेहद मुश्किलों और जवाबेदही से भरा था।

पारिवारिक पृष्ठभूमि संपन्न थी

सुभाष चन्द्र बोस के पिता जानकी नाथ बोस वास्तविक रुप से बंगाल के परगना जिले के एक छोटे से गाँव के रहने वाले थे। ये वकालत करने के लिये कटक आ गये क्योंकि इनके गाँव में वकालत में सफल होने के कम अवसर थे। कटक में इनके भाग्य ने इनका साथ दिया और सुभाष के जन्म से पहले ही ये अपने आपको वकालत में स्थापित कर चुके थे। ये नगर पालिका के प्रथम भारतीय गैर सरकारी अध्यक्ष भी चुने गये।

देशभक्ति सुभाष को अपने पिता से विरासत में मिली थी। इनके पिता सरकारी अधिकारी होते हुये भी कांग्रेस के अधिवेशनों में शामिल होने के लिये जाते रहते थे। वह ये खादी, स्वदेशी और राष्ट्रीय शैक्षिक संस्थाओं के पक्षधर थे।

जर्मन महिला एमिली शेंकेल से शादी और बच्ची

अंग्रेज़-सरकार ने सुभाष को 1934 में देश से निर्वासित किया तो वह वियना पहुंचे। वहां उनको एक किताब लिखने का विचार आया। अपने एक मित्र मिस्टर माथुर से उन्होंने कहा कि उन्हें एक ऐसा स्टेनो चाहिए, जो अंग्रेज़ी समझता हो और टाइपिंग में तेज़ हो, ताकि वह वियना में अपने समय का उपयोग कर सकें। मिस्टर माथुर वियना में डॉक्टर थे। वह एमिली शेंकल को जानते थे, जो जर्मन के साथ अंग्रेज़ी भाषा की जानकार थी। स्टेनोग्राफ़र का कोर्स कर चुकी थी।

काम करने के साथ-साथ दोनों में मधुर संबंध विकसित हो गए। उनकी एक बेटी अनीता भी हुईं। वह अभी जीवित हैं और कई बार भारत भी आती हैं, अपने पिता के परिवार के बाकी लोगों से मिलने के लिए।

गांधी से नहीं बनी, अलग रास्ता चुना

महात्मा गाँधी से उनकी पहली मुलाकात बहुत अच्छी नहीं रही। वो जिन विषयों को जानना चाहते थे गाँधी उनसे संबंधित जबावों से सुभाष को आन्दोलनों की सही दिशा का ज्ञान नहीं हो पाया। कर न देने के आन्दोलन की रणनीति को छोड़कर अन्य किसी भी आन्दोलन की रणनीति प्रभावी नहीं थी। कुल मिलाकर गाँधी से मुलाकात निराशा जनक रही।

महात्मा गाँधी से मिलने के बाद ये तुरन्त सी.आर.दास (देशबन्धु) से मिलने के लिये कलकत्ता चले गये। सुभाष चन्द्र बोस देशबन्धु चितरंजन दास से मिलकर बहुत प्रभावित हुये। उनसे मिलकर बोस को ऐसा लगा कि अपने जीवन के उद्देश्य प्राप्ति के रास्ते के साथ-साथ गुरु भी प्राप्त कर लिया, जिसका ये जीवन भर अनुसरण कर सकेंगे।

कांग्रेस में हालांकि इनका मन नहीं लगा और इन्होंने कांग्रेस के सबसे बड़े पुरुष मोहनदाम करमचंद गांधी से ही पंगा ले लिया। यहां तक कि जब 1939 में इन्होंने गांधी के मनोनीत प्रतिनिधि पट्टाभि सीतारमैया को हरा दिया, तो गांधी ने उसे व्यक्तिगत हार माना और सभी से कांग्रेस कार्यसमिति से इस्तीफा दिलवा दिया।

जीवन के साथ मौत पर भी रहस्य

थककर बोस बाबू ने कांग्रेस ही छोड़ दी, फॉरवर्ड ब्लॉक बनाया और आखिर सशस्त्र उपायों से देश को स्वतंत्र कराने निकले। उसी दौरान  23 अक्टूबर 1945 को टोकियों के रेडियो प्रसारण ने एक सूचना प्रसारित की कि ताइहोकू हवाई अड्डे पर विमान उड़ान भरते समय ही दुर्घटना ग्रस्त हो गया जिसमें चालक और इनके एक साथी की घटना स्थल पर ही मृत्यु हो गयी और नेताजी आग से बुरी तरह झुलस गये। इन्हें वहाँ के सैनिक अस्पताल में भर्ती कराया गया और इसी अस्पताल में इन्होंने अपने जीवन की आखिरी सांस ली।

नेताजी की मृत्यु पर बहुत विवाद है। 1947 को देश आजाद होने के बाद भारत की नयी निर्वाचित सरकार ने इनकी मृत्यु की जाँच के लिये तीन जाँच कमीशन नियुक्त किये। इसमें से दो ने उनकी विमान दुर्घटना में मृत्यु को सही मान लिया जबकि एक कमीशन ने अपनी रिपार्ट में नेताजी की विमान दुर्घटना में मृत्यु की कहानी को कोरा झूठ बताया। भारत सरकार ने इस रिपोर्ट को बिना कोई ठोस कारण दिये रद्द कर दिया और बाकि दो कमीशन की रिपोर्ट के आधार पर नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की विमान दुर्घटना में मृत्यु की पुष्टि कर उन रिपोर्टों को सार्वजनिक कर दिया।

देखें वीडियोः-

 

भारत का वह सपूत जिसकी ज़िन्दगी के साथ मौत पर भी है, रहस्य!

 

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