मई 2013 में कांग्रेस छत्तीसगढ़ में विधानसभा चुनावों की तैयारियों में लगी थी । परिवर्तन यात्रा पूरे प्रदेश में निकाली जा रही थी। सभा के बाद कांग्रेस नेताओं का काफिला सुकमा से जगदलपुर की ओर आ रहा था।
रास्ते में झीरम घाटी पड़ी। घाटी पर मोबाइल नेटवर्क नहीं मिल रहा था। शाम के तकरीबन 4 से साढ़े चार का वक्त था। काफिले की गाड़ियॉ बढ़ रहीं थी लेकिन अचानक एक गाड़ी के नीचे ब्लास्ट हुआ। नेताओं और उनके सुऱक्षाकर्मियों को समझते देर नहीं लगी कि वो किसी बड़ी नक्सली साजिश का शिकार हो गए हैं। जैसे ही फायरिंग शुरू हुई नक्सलियों पर भी सुरक्षा गार्डों ने पलटकर फायरिंग की। दोनों तरफ से फायरिंग जारी थी। सुरक्षा गार्डों की गोलियां खत्म हो गईं लेकिन नक्सलियों की गोलियां खत्म नहीं हुई।
महेन्द्र कर्मा को किया टारगेट
फायरिंग रोककर नक्सलियों ने ऐलान किया कि –“महेन्द्र कर्मा जिस गाड़ी में हो बाहर आए।“ ऐलान सुनते ही महेन्द्र कर्मा गाड़ी से बाहर निकले। बाहर निकलते वक्त महेन्द्र कर्मा को शायद उम्मीद होगी कि खुद बच नहीं सकेंगे लेकिन उनके बाहर आने के बाद उनके साथी बच सकते हैं। महेन्द्र कर्मा के बाहर निकलते ही नक्सलियों ने उन्हें गोलियों से छलनी कर दिया। तकरीबन सौ गोलियां उसके शरीर पर दागी गईं। नक्सलियों ने इतने के बाद भी कर्मा को नहीं छोड़ा कर्मा के निष्प्राण शरीर को वो अपने साथ ले गए और उस पर बंदूक की नोंक से कई वार किए। उनके शरीर में एक दो नहीं ब्लकि पूरे 78 बार वार किए गए। पोस्मार्टम की रिपोर्ट में जब खुलासा हुआ तो सभी के होश उड़ गए।
नक्सली बाकी नेताओं को अगवा कर ले गए और उस घाटी से कुछ ही लोग बचकर आए।
नक्सलियों के खिलाफ किया था जन जागरण
दऱअसल महेन्द्र कर्मा देतंवाडा के एक छोटे से गांव में पैदा हुए थे। दंतेवाडा और बस्तर में नक्सलियों का प्रभाव बढ़ रहा था तब कर्मा ने नक्सलियों के खिलाफ आदिवासियों में 1991 में जन जागरण अभियान शुरू किया था।
बस्तर दंतेवाडा इलाके में जन जागरण करते हुए महेन्द्र कर्मा की लोकप्रियता इतनी बढ गई कि वो निर्दलीय ही चुनाव जीतकर संसद तक पंहुचे और फिर उन्होनें कांग्रेस ज्वाइन कर ली।
छत्तीसगढ़ राज्य अलग होने के बाद जब पहली सरकार बनी तो कर्मा उसमें मंत्री बने। फिर बीजेपी के राज में पहले नेता प्रतिपक्ष बनने का मौका भी उनको ही मिला।
सलवा जुड़ूम की शुरूआत की
सलवा जुडूम आदिवासी युवाओं का दस्ता था जो नक्सलियों के खिलाफ जन जागरण करता था। सलवा जुड़ूम एक आदिवासी शब्द है जिसका मतलब होता है शांति का कांरवा। ये 2005 में बनाया गया था । उस वक्त छत्तीसगढ़ में डॉक्टर रमन सिंह की सरकार थी। रमन सरकार को सलवा जुड़ूम इतना पंसद आया कि सरकार भी सलवा जुडूम की मदद करने लगी। माना जा सकता है कि सलवा जुडूम कांग्रेस और बीजेपी दोनो का मिला जुला अभियान था ।
सलवा जुडूम का असर भी दिखा और गावंवालो ने माओवादियों की मदद कम कर दी।
माओवादियों के ठिकानों पर पुलिस ने जाकर उनका सरेंडर कराना शुरू किया।
सलवा जुडुम से परेशान नक्सलियों ने पंचायत में गावं वालो को मुखबिरी के शक में मारना शुरू कर दिया।
वही दूसरी तरफ सलवा जुडुम को लेकर भी शिकायतें शुरू हो गई।
सलवा जुडूम का मामला सर्वोच्च अदालत तक गया 2011 में सलवा जुडुम पर रोक लगाने के आदेश हुए
न राज्य सरकार ने न ही महेन्द्र कर्मा ने सलवा जुडूम पर रोक लगाई ।
सलवा जुडूम ऐसा ही चलता रहा।
जानकार बताते हैं कि नक्सलियों ने कर्मा से सलवा जुडिम का बदला लिया। वो कर्मा को हर बार टागरेट करते थे लेकिन कर्मा बचते रहे। फिर कर्मा के परिवरा के 15 लोगों के खो जाने के बाद सरकार ने उनको सुरक्षा दी दो झीरम घाटी के हमले में उनको नही बचा पाई।
झीरम घाटी में उस वक्त की मीडिया रिपोर्टस के मुताबिक महेन्द्र कर्मा की मौत के बाद नक्सलियों जश्न भी मनाया था।
इस हमले में कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष नंद कुमार पटेल और उनके बेटे दिनेश पटेल की भी हत्या कर दी। हमले में घायल कांग्रेस के वरिष्ठ नेता वी सी शुक्ल का कुछ दिनों बाद निधन हो गया।