लोकसभा चुनाव में प्रचार का शोर शराबा अपने चरम पर पहुंच चुका है। देश भर में लोकसभा की 543 सीटों पर चुनावी समर 1 जून को पूरा होगा। लोकसभा चुनाव की जब भी बात होती है तो जहन में सबसे पहले उत्तरप्रदेश आता है। कहा जा सकता है कि दिल्ली की सत्ता का रास्ता उत्तरप्रदेश से ही होकर गुजरता है क्योंकि यहां लोकसभा की सबसे अधिक 80 सीटें हैं। जिन्हें हासिल करने के लिए एनडीए और इंडी महागठबंधन के साथ दूसरे दल भी तमाम कोशिशें करते नजर आ रहे हैं। यूपी की इन 80 सीटों के समीकरण पर गौर करें तो अधिकांश सीटों पर हार जीत का अहम फैसला ओबीसी वोटर्स के हाथ में है।
- यूपी की 80 सीट और ओबीसी मतदाताओं का रुझान
- जिस पलड़े में ओबीसी…उसके पाले में ज्यादा सीट
- यूपी में लोकसभा चुनाव और ओबीसी वोट बैंक
- उत्तर प्रदेश में 42 फ़ीसदी ओबीसी मतदाता
- यादवों की संख्या 11%, कर्मी 5%
- कोरी, कुशवाहा, सैनी करीब चार प्रतिशत
- जाट वोटर्स दो प्रतिशत
- अन्य ओबीसी करीब 16%
पीएम ने चुनाव से पहले ही समझ लिया था ओबीसी वोटर्स का महत्व
लोकसभा चुनाव के पहले चरण की शुरुआत के साथ ही रैली और जनसभा में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अपनी सरकार के विकास के कार्यों के नाम पर वोट मांगते नजर आए थे। इसके बाद हवा का रुख बदला तो उनके भाषणों में जातिगत गोलबंदी नजर आने लगी। 19 अप्रैल को पहले चरण की वोटिंग से पहले हर दूसरी बड़ी चुनावी रैली में प्रधानमंत्री बीजेपी को पिछड़ा और दलितों का सबसे बड़ी सरपरस्त पार्टी बताते रहे। इतना ही नहीं इससे पहले इसी साल फरवरी में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संसद में खुद के ओबीसी होने पर भी जोर दिया था।
वहीं बिहार में जातिगत सर्वे के नतीजे सामने आए तो कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने जब बीजेपी सरकार में ओबीसी के प्रतिनिधित्व पर सवाल उठाया तो केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने उनको जवाब दिया था। शाह ने कहा था कि बीजेपी और एनडीए सरकार में ओबीसी को प्रतिनिधित्व करने का मोका दिया है। यह दूसरी पार्टियों से अधिक है। यह वे पार्टियां हैं जो ओबीसी की नुमाएंगी में दिन रात ओबीसी राग अलापती रहीं हैं। लेकिन इन पार्टियों से ज्यादा ओबीसी की नुमाएंगी बीजेपी और एनडीए में है।
अमित शाह के राहुल गांधी को दिए इस जवाब को सिर्फ बयान नहीं कहा जा सकता क्योंकि कई चुनावी सर्वेक्षणों में जो आंकड़े सामने आए हैं। वह बताते हैं कि पिछले 10 साल के दौरान हुए चुनाव में बीजेपी को ओबीसी और दलित वोटो का बड़ा समर्थन मिला है। खासकर ओबीसी वर्ग बीजेपी की ओर झुकता नजर आया है।
बीजेपी को मिले ओबीसी वोटर्स के समर्थन की बात करें तो साल 1996 में बीजेपी को 19%, कांग्रेस को 25 और क्षेत्रीय पार्टियों को 50% समर्थन मिला। इसके इसके बाद 1999 में 23% बीजेपी, 24% कांग्रेस और 41% क्षेत्रीय दल को अेबीसी का साथ मिला। 2004 के चुनाव की बात करें तो बीजेपी ने अपना 23% ओबीसी वोट बैंक बरकरार रखा।
वहीं कांग्रेस भी 24% वोट बैंक बचाने में सफल रही। वहीं 43 फीसदी क्षेत्रीय दलों ने ओबीसी का साथ हासिल किया। 2009 में बीजेपी को एक परसेंट का घाटा हुआ यानी 22 प्रतिशत ओबीसी वोटर्स का रुझान उसकी तरफ रहा तो कांग्रेस को 24 फीसदी और क्षेत्रीय दलों को 42 फीसदी ओबीसी वोटर्स ने पसंद किया।
2014 के चुनाव में ओबीसी मतदाताओं का रुख बीजेपी की ओर बड़ी तेजी से हुआ और बीजेपी को 34 फीसदी ओबीसी वोटर्स का साथ मिला। वहीं कांग्रेस की ओर महज 15 फीसदी ओबीसी गए जबकि क्षेत्रीय दलों को 43 फीसदी ओबीसी का साथ मिला। 2019 में बीजेपी के लिए यह संख्या बढ़कर 44% हो गई और कांग्रेस 15 पर ही टिकी रही। जबकि क्षेत्रीय दलों को 27 फीसदी ओबीसी वोटर्स का साथ मिला।
ओबीसी को लेकर राहुल और शाह में तकरार
बीजेपी ने इस बार लोकसभा चुनाव से पहले बड़ा चुनावी नारा दिया था अबकी बार 400 पार। ऐसे में जानकारों की माने तो इस लोकसभा चुनाव में भी ओबीसी मतदाता गेम चेंजर साबित हो सकते हैं। राहुल गांधी बार-बार चुनावी सभा में जाति जनगणना और ओबीसी मुद्दा उठाते रहे हैं। राहुल दावा करते हैं कि केंद्र सरकार में 90 सचिव उत्तर के अधिकारी है। जिनमें से सिर्फ तीन ओबीसी वर्ग से आते हैं। वह पांच प्रतिशत बजट को नियंत्रित करते हैं। राहुल गांधी के इस आरोप पर अमित शाह जवाब देते हुए कहते हैं कि बीजेपी के सांसदों में 29% यानी 85 सांसद और 29 मंत्री ओबीसी कैटेगरी के हैं। जबकि देशभर में 1358 विधायक को में से 365 ओबीसी वर्ग से हैं जो 27 फीसदी है। यह सभी ओबीसी का राग अलापने वाली पार्टियों से ज्यादा है।
यूपी में नेता नहीं जाति को मिलते हैं वोट!
उत्तर प्रदेश की चुनावी राजनीति पर नजर डालें तो यहां वोट नेता को नहीं जाति को देते हैं। राज्य के 42% मतदाता ओबीसी वर्ग से ताल्लुक रखते हैं। यही वजह है कि ओबीसी वोट बैंक को साधने के लिए भाजपा ही नहीं समाजवादी पार्टी और बीएसपी के साथ कांग्रेस भी अपना जनाधार मजबूत करने के लिए पूरी ताकत से जुटी हुई है। हालांकि ओबीसी को सपा का और वोटर्स माना जाता था। यादव वोटर समाजवादी पार्टी के प्रत्याशी वोटर माने जाते हैं लेकिन 2017 में यूपी विधानसभा चुनाव के बाद जब बीजेपी सत्ता में आई तो वोट बैंक भी विभाजित हो गया। बीजेपी ने अपनी रणनीतियों से सपा के इस वोट बैंक में सेंधमारी करने में कामयाबी हासिल की और देखते ही देखते गैर यादव ओबीसी वोटर्स बीजेपी के पाले में आते गए और समाजवादी पार्टी से दूर होते गए। यही वजह है कि अब सवाल उठता है कि यूपी के सियासी रनवे पर क्या समाजवादी पार्टी एक बार फिर ओबीसी वोट बैंक में भाजपा के बढ़ते दबदबे को तोड़ने में सफल हो पाएगी। उत्तर प्रदेश में गैर यादव ओबीसी जातियों और उनकी चुनावी अहमियत पर नजर डालें तो उत्तर यूपी के अवध और पूर्वांचल इलाके में राजभर, कुर्मी, मौर्य, चौहान, निषाद, नोनिया जैसी गैर यादव ओबीसी जातियों के वोटर की तादात इतनी है कि वे किसी भी पार्टी के साथ जुड़ेते हैं तो निर्णायक जीत दिला सकते हैं। यूपी के कई जिले ऐसे हैं जहां गैर ओबीसी मतदाताओं की भरमार है।
किस जाति का कितना वोट शेयर
चुनावों में जातिगत वोट शेयर की बात करें तो उत्तर प्रदेश में 42 फ़ीसदी ओबीसी वोटर हैं। जबकि यादवों की संख्या 11%, कर्मी 5%, कोरी, मोरी, कुशवाहा, सैनी करीब चार प्रतिशत और जाट वोटर्स दो प्रतिशत है। अन्य ओबीसी करीब 16% यूपी में है।
ओबीसी को साधकर योगी ने बनाई सरकार
2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव के साथ ही 2017 और 2022 में हुए यूपी विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने ओबीसी वोट बैंक में सेंधमारी करने में सफलता हासिल की थी। उस समय समाजवादी पार्टी के कई नेता और समर्थक बीजेपी के पहले में आ गए थे। इस बार भी भाजपा ओबीसी वोट बैंक को बढ़ाने कोशिशें में जुटी हुई है। इसी कोशिश के चलते ओपी राजभर को एनडीए में लाया गया। संजय निषाद, जयंत चौधरी और अनुप्रिया पटेल ऐसे चेहरे हैं जो अब एनडीए के साथ हैं और इन नेताओं पर एनडीए के लिए ओबीसी वोट बैंक को बढ़ाने का जिम्मा है।
ओबीसी वोटर्स को संभाले रखना बीजेपी के लिए चुनौती !
पिछले चुनावी रिकॉर्ड और आंकड़ों पर नजर डालें तो बीजेपी को ओबीसी बंपर वोट मिला है। ऐसे में इस बार लोकसभा चुनाव में बीजेपी के सामने ओबीसी वोट बैंक को संभाले रखना एक बड़ी चुनौती बन गया है। दरअसल 2014 के चुनाव में सपा और बसपा ने अलग-अलग चुनाव लड़ा था। उस समय यादवों के वोट को छोड़ दिया जाए तो शेष ओबीसी जातियां बीजेपी और समाजवादी पार्टी के बीच करीब 35 से 70 फ़ीसदी का अंतर है। वही 2019 में जब समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी साथ थे। तब भी 50 से 84 फ़ीसदी का अंतर था। ऐसे में विरोधियों के लिए इस अंतर को पटना अपना आसान नहीं हो होगा।
हालांकि राजनीतिक विश्लेषकों की माने तो ओबीसी वोट बैंक को बनाए रखना बीजेपी के लिए कोई बड़ी मुश्किल नहीं है क्योंकि भाजपा ने ओबीसी वोट बैंक को यूपी में दो हिस्सों में बांट दिया है। पहले यादव ओबीसी जिनकी संख्या करीब 10% है और दूसरा गैर यादव ओबीसी मतदाता। यह दोनों को साथ लेकर भाजपा अपना दबदबा कायम करने में कामयाब रह सकती है। गैर यादव ओबीसी वोट उत्तर प्रदेश में करीब 30% हैं। इनमें भी कई उपजातियां हैं। इन छोटी-छोटी जातियों के नेताओं को भाजपा ने प्रतिनिधित्व दिया है। जिसमें ओपी राजभर और संजय निषाद शामिल हैं। यूपी की योगी सरकार में करीब 40 से 50% मंत्री गैरयादव ओबीसी समुदाय से ही ताल्लुक रखते हैं। गैर यादव वोटर पर भी बीजेपी की एक मजबूत पकड़ नजर आ रही है। हालांकि इस बार समाजवादी पार्टी ने भी टिकट बंटवारे में गैर यादव ओबीसी को मौका दिया।
अखिलेश भी पीडीए और एमवाय पर दे रहे जोर
सपा प्रमुख अखिलेश यादव चुनाव प्रचार में जहां भी जाते हैं वहां पीडीए पीडीए करते हैं। यानी पिछड़ा, दलित और अल्पसंख्यक। लेकिन एमवाय समीकरण यानी मुस्लिम यादव समीकरण को ही श्योर मानकर चल रहे है। अखिलेश यादव ओबीसी वोटर्स को भी साधने की कोशिश में जुटे रहते हैं लेकिन समाजवादी पार्टी के सामने भी इस लोकसभा चुनाव में ओबीसी वोट बैंक को वापस पाना एक बड़ी चुनौती है। इसके लिए समाजवादी पार्टी की रणनीति भी साफ है। सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने पिछड़ा, दलित और अल्पसंख्यक यानी पीडीए का नारा भी दिया है। जहां समाजवादी पार्टी खास तौर पर जाति का जनगणना पर जोर देती नजर आ रही है। वहीं बीजेपी से इससे दूर है।
मायावती भी समझती हैं ओबीसी मतदाताओं की ‘माया’
बहुजन समाज पार्टी की बात करें तो यूपी के ओबीसी मतदाताओं को लुभाने के लिए बसपा प्रमुख मायावती भी पीछे नहीं रहीं। साल 2007 में जब बहुजन समाज पार्टी ने पूर्ण बहुमत के साथ यूपी में सरकार बनाई थी तब बसपा को भारी मात्रा में ओबीसी वोट का साथ मिला था। इसके बाद बसपा और सपा ने साथ मिलकर 2019 का लोकसभा चुनाव लड़ा इसका फायदा बसपा को मिला। उसके ओबीसी वोट बैंक के शेयर में इजाफा हुआ था। अब 2024 के लोकसभा चुनाव में मायावती ओबीसी वोट बैंक को साधने के लिए जाति का जनगणना की मांग का समर्थन करते नजर आ रहीं हैं। इतना ही नहीं मायावती ने महिला आरक्षण बिल में ओबीसी कोटा की मांग भी की थी। जिससे जनता के बीच यह संदेश जाए बसपा ही उत्तर प्रदेश में ओबीसी समुदाय के भले के बारे में सोचती है।
राजनीति में सक्रिय चर्चित ओबीसी चेहरे
देश के चर्चित ओबीसी नेताओं की बात करें तो सबसे पहला नाम आता है प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का इसके बाद बिहार के सीएम नीतीश कुमार, उत्तर प्रदेश के पूर्व सीएम और समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव, बिहार के पूर्व डिप्टी सीएम तेजस्वी यादव, यूपी के डिप्टी सीएम केशव प्रसाद मौर्य, कर्नाटक के सीएम सिद्धारमैया, मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री डॉ मोहन यादव, हरियाणा के मुख्यमंत्री नायब सैनी, बीजेपी ओबीसी मोर्चा के राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉक्टर के लक्ष्मण, मध्य प्रदेश के पूर्व सीएम शिवराज सिंह चौहान, छत्तीसगढ़ के पूर्व सीएम भूपेश बघेल, बिहार के डिप्टी सीएम सम्राट चौधरी, केंद्रीय मंत्री भूपेंद्र यादव, महाराष्ट्र के मंत्री छगन भुजबल यह ऐसे नाम हैं जो देश की राजनीति में बड़े ओबीसी चेहरे माने जाते हैंं।