वसंत ऋतु के स्वागत और प्राकृतिक बदलाव के उत्सव है होली…!
वैदिक काल में होली कैसे मनाई जाती थी। सभी के मन में यह सवाल अक्सर उठता है। क्या जैसी होली आज हम मनाते हैं होली वैसे ही मनाई जाती थी या इससे भिन्न होती थी। वैसे जिस तरह की होली आज-कल मनाई जाती है। वैसी होली उस वक्त नहीं मनाई जाती थी। हालांकि, यह पर्व उस समय भी मनाया जाता था, लेकिन उसकी पारंपरिक और धार्मिक प्रकृति थोड़ी अलग थी। होली का उत्सव वैदिक काल में मुख्य रूप से वसंत ऋतु और प्राकृतिक पुनर्जन्म से जुड़ा हुआ था। आइए जानते हैं कि वैदिक काल में होली कैसे मनाई जाती थी।
वसंत ऋतु का स्वागत
वैदिक काल में वसंत ऋतु का अत्यधिक महत्व था। यह वह समय था जब सर्दी खत्म होती थी। गर्मी की शुरुआत होती थी और प्रकृति में नए जीवन की बयार बहने लगती थी। वसंत पंचमी और होली के समय के बीच का अंतर केवल एक सांस्कृतिक विकास था। वैदिक काल में वसंत ऋतु को एक जीवनदायिनी शक्ति माना जाता था और इसका स्वागत संगीत, नृत्य, और प्राकृतिक रंगों के साथ होता था। लोग वसंत के मौसम की खुशियों को मनाने के लिए पर्व मनाते थे, लेकिन इसे अभी एक धार्मिक पर्व के रूप में नहीं मनाया जाता था। इस समय प्रकृति में बदलाव, फूलों का खिलना और फसलों का उगना उत्सव का कारण बनते थे।
ऋग्वेद में रंगों का संकेत
हालांकि होली का सीधा उल्लेख वैदिक ग्रंथों में नहीं मिलता, लेकिन ऋग्वेद में कई ऐसे मंत्र हैं जिनमें रंगों और फूलों का उल्लेख किया गया है। ऋग्वेद में रंगों का उपयोग देवी-देवताओं को प्रसन्न करने, प्रकृति की सुंदरता को व्यक्त करने और आनंद के प्रतीक के रूप में होता था। इस समय रंगों का उपयोग धार्मिक और सांस्कृतिक उत्सवों में प्रतीकात्मक रूप से होता था। ऋग्वेद के कुछ मायनों में सुख, समृद्धि, और प्रकृति के उज्जवल रंग के बारे में वर्णन किया गया है, जो कि आज की होली के रंगों से मिलते-जुलते हैं। ये रंग जीवन के रंगीन पहलुओं और खुशी का प्रतीक थे।
प्राकृतिक रंगों का उपयोग
वैदिक काल में रंगों का उपयोग मुख्य रूप से प्राकृतिक स्रोतों से किया जाता था। फूलों, पत्तियों, आवश्यक तेलों, और जड़ी-बूटियों से रंग तैयार किए जाते थे। लोग सुरुचिपूर्ण रंग जैसे गुलाब, कुमुद, और अन्य फूलों से रंगों को बनाते थे। ये रंग प्राकृतिक और शुद्ध होते थे। उनका उपयोग उत्सव में आनंद और सौंदर्य को बढ़ाने के लिए होता था।
धार्मिक और आध्यात्मिक दृष्टिकोण
वैदिक काल में होली का पर्व आध्यात्मिक उन्नति और प्राकृतिक शक्ति की पूजा से जुड़ा था। इस समय, लोग देवताओं की पूजा करते थे। मौसम के बदलाव के साथ समृद्धि की कामना करते थे। वसंत ऋतु के आगमन का संबंध जीवन की नई शुरुआत और समृद्धि से होता था। होली के दिन लोग आत्मा की शुद्धता और प्रकृति के साथ सामंजस्य की भावना को महसूस करते थे। यह एक प्रकार से प्रकृति और जीवन के नवीनीकरण का उत्सव था।
होलिका दहन की प्रारंभिक परंपरा
होलिका दहन का उल्लेख वैदिक काल में भी मिलता है, लेकिन इसका रूप और उद्देश्य आज की तरह पूरी तरह से विकसित नहीं हुआ था। प्राचीन काल में, होलिका दहन और अग्नि पूजा को बुरी शक्तियों और दुष्ट कर्मों को नष्ट करने के रूप में मनाया जाता था। यह पारंपरिक रूप से प्राकृतिक शक्तियों की पूजा का हिस्सा था, जो प्रकृति के बदलाव के समय में होती थी। बुराई का नाश और अच्छाई की विजय के प्रतीक के रूप में इस समय के लोग अग्नि के माध्यम से शुद्धता की भावना को मनाते थे।
सामाजिक और सांस्कृतिक एकता
वैदिक काल में होली को एक सामाजिक उत्सव के रूप में मनाया जाता था। जिसमें लोग एक-दूसरे से मिलकर अपने दुखों और खुशियों को साझा करते थे। हालांकि यह पर्व पारंपरिक रूप से एक धार्मिक उत्सव था। फिर भी इसे सामूहिक रूप से मनाने की परंपरा थी। लोग एक दूसरे के घर जाते थे। संगीत, नृत्य के साथ खुशियाँ साझा करते थे। सामाजिक और सांस्कृतिक समरसता के रूप में यह पर्व मनाने की भावना धीरे-धीरे विकसित हुई।
वैदिक काल में होली का पर्व अधिकतर वसंत ऋतु के स्वागत और प्राकृतिक बदलाव के उत्सव के रूप में मनाया जाता था। इसमें रंगों का उपयोग प्राकृतिक स्रोतों से होता था और यह प्रकृति, जीवन, और उन्नति के प्रतीक के रूप में था। यह समय बुराई के नाश और आध्यात्मिक शुद्धता का प्रतीक भी था, लेकिन वैदिक काल में यह इतना विकसित और विशिष्ट धार्मिक रूप से नहीं था, जैसा आज के समय में है।..प्रकाश कुमार पांडेय