गुजरात में भाजपा ने इतिहास रचा है। लगातार सातवां चुनाव जीता है, वह भी दो-तिहाई बहुमत के साथ। बीजेपी को सबसे बड़ी जीत मिली है। यहां तक कि 150 सीटों का आंकड़ा छू लिया। यह बीजेपी को गुजरात में मिली अब तक की सबसे बड़ी जीत है। वैसे, थोड़ा ठहर कर सोचें, तो इसमें इतनी हैरानी की बात नहीं है। कैसे, यह आगे बताते हैं।
गुजरात का विधानसभा चुनाव बीते तीन दशक में शायद इकलौती ऐसी परिघटना बन चुका है जो इस राजनीति-प्रेमी देश में किसी राजनीतिक घटना के रूप में दर्ज नहीं होता है। यह अजीब विरोधाभास है, लेकिन इतना अबूझ भी नहीं है। इसके कारण स्पष्ट हैं।
जनधारणा में यह बिलकुल साफ है कि 27 साल से गुजरात की सरकार में चली आ रही भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को कोई हटा नहीं सकता। यह आज सिद्ध भी हो चुका है। चुनाव परिणाम पता है इसलिए जिज्ञासा नदारद है। इसके बावजूद, चुनाव नाम की लोकतांत्रिक प्रक्रिया का अपने आप में कुछ महत्व तो होना ही चाहिए। विडम्बना यह है कि राजनीतिक दलों से लेकर चुनावी पर्यटन करने वाले पत्रकारों तक कोई नहीं जानता कि इस प्रक्रिया के भीतर के स्थानीय मुद्दे क्या हैं। लिहाजा गुजरात का चुनाव विशुद्ध लोकतांत्रिक कर्मकांड की अवस्था को प्राप्त हो चुका है। इसीलिए यह भारत की एक विशिष्ट परिघटना है।
बहरहाल, दिल्ली और पंजाब में चुनावी झंडे गाड़ चुकी आम आदमी पार्टी का इस बार गुजरात चुनाव में उतरना थोड़ी जिज्ञासा का बायस बना था, लेकिन नतीजे कुछ और ही कहानी कह रहे हैं। नतीजों को थोड़ा समझा जाए। आम आदमी पार्टी तीन तरह के कार्ड बांट रही थी। इसे वह गारंटी कार्ड कहती थी। पहला था महिला भत्ता गारंटी, दूसरा है बिजली गारंटी और तीसरा है रोजगार गारंटी कार्ड।
दिलचस्प है कि गुजरात के गांवों में 2005 से ही बिजली ठीकठाक आ रही है इसलिए बिजली गारंटी का कम से कम शहरों में बहुत मतलब नहीं रह जाता। रोजगार गारंटी वहां दी जा रही है जहां यूपी-बिहार, राजस्थान से लोग छिटपुट रोजगारों के लिए बरसों से पहुंच रहे हैं। महिला भत्ता बेशक एक लुभावनी चीज है, लेकिन इसमें मुद्दा क्या है? पार्टी के नेता कथित ‘दिल्ली मॉडल’ को वहां बेच रहे हैं, जहां से ‘गुजरात मॉडल’ पूरे देश में आठ साल पहले बेचा जा चुका है। यह मॉल के बगल में गुमटी खोलने जैसी बात है।
कांग्रेस के बारे में कुछ बोलने की जरूरत नहीं है। वह तो वैसे भी आधे मन से चुनाव लड़ रही थी। यहां तक कि उसके युवराज भारत जोड़ो यात्रा के नाम पर पूरा देश घूम रहे हैं, मौज कर रहे हैं, लेकिन गुजरात नहीं गए। गुजरात में जनता ने कांग्रेस की विदाई का कार्यक्रम पहले ही तय कर दिया था।
जाहिर है, ऐसे में बार-बार एक ही सवाल उठता है कि गुजरात में भारतीय जनता पार्टी के तीन दशक के राज के पीछे क्या कारण है। आखिर क्यों वहां के मतदाता बार-बार भाजपा को चुन कर सत्ता में लाते हैं? गुजरात दंगों के बाद यह हुआ। नोटबंदी के ठीक बाद यही हुआ। कोरोना की भयावह तबाही के बाद भी यही होता दिख रहा है। क्या गुजरात का मतदाता अराजनीतिक हो चुका है? उदासीन हो चुका है? या भाजपा वाकई गुजरात में कामयाब है?
कुपोषण, शिक्षा, स्वास्थ्य और महंगाई गुजरात में मुद्दा नहीं बन पाती। इसका मतलब तो यही है कि गुजरात में भाजपा वाकई कामयाब है और उसने इन मुद्दों को काफी हद तक सुलझा लिया है।
हिंदुत्व की राजनीति
गुजरात में जातिगत विभाजन बहुत ज्यादा है लेकिन बीते तीन-चार दशक में हुए तीव्र शहरीकरण ने इन विभाजनों को कम किया है और जातिगत समूहों के आपसी रिश्तों को तोड़ा है। अब यहां लोगों के समूह आधुनिक धार्मिक संप्रदायों के भीतर बनते हैं। पहले जो जाति की सम्बद्धताएं हुआ करती थीं, वो गुजरात में अब नहीं बची हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में तो जातिगत समूह होते ही थे। शहरों में भी जातिगत समूह क्षेत्रवार बनते रहे हैं।
तीव्र शहरीकरण की प्रक्रिया ने इन रिश्तों को तोड़ने का काम किया है। इस सम्बद्धता की प्रकृति अब बदल चुकी है। गुजरात में धार्मिक पंथों ने इस खाली हुई जगह को भरने का काम किया है। गांव-कस्बे से शहर आये लोगों और शहरीकरण के प्रभाव में टूट रही जातिगत-क्षेत्रगत सम्बद्धताओं के चलते अलगाव में पड़ रहे लोगों के काम राजनीतिक दल भाजपा नहीं, उससे सम्बद्ध धार्मिक पंथ या समूह आते हैं। जो काम पहले जातिगत समूहों के भीतर हुआ करते थे वे अब सेक्ट के भीतर हो जाते हैं। यही भाजपा के वोट के लिए आधार तैयार करता है। यही सामाजिक सहयोग ढांचा एक नागरिक को उसकी बुनियादी जरूरतों और मुद्दों से गाफिल भी रखता है।
इस मामले में स्वामीनारायण संप्रदाय की जगह खास है। स्वामीनारायण संप्रदाय के तमाम मंदिर हैं जो बेहद सुदूर गांव-गिरांव में पिछले कुछ वर्षों के दौरान निर्मित किए गए हैं। कच्छ में आए 2001 के भूकंप के बाद जिस बड़े पैमाने पर अंतरराष्ट्रीय विकास संस्थाओं, बैंकों, वित्तीय संस्थानों, बीमा कंपनियों, सरकारों, निजी कंपनियों आदि की ओर से यहां पुनर्निर्माण में निवेश किया गया, उसका दूसरा आयाम हमें बीएपीएस और विश्व हिंदू परिषद जैसी धार्मिक संस्थाओं के धर्मार्थ कार्यों में दिखता है। इस लिहाज से बीएपीएस का काम बहुत अहम रहा क्योंकि उसने कच्छ के रण से सटे सबसे ज्यादा प्रभावित क्षेत्र खावड़ा के गांवों को पुनर्विकास के लिए गोद लिया।
कच्छ के भूकंप के बाद गुजरात में किए गए कार्यों पर स्वामीनारायण मंदिर की अपनी रिपोर्ट आंख खोलने वाली है। ‘’गुजरात अर्थक्वेक: रीहैबिलिटेशन एंड रिलीफ वर्क रिपोर्ट’’ नाम के 43 पन्ने के इस दस्तावेज़ को देखकर स्वामीनारायण संप्रदाय और उसे चलाने वाले एनजीओ बीएपीएस का काम समझ में आता है। इसमें कोई शक नहीं कि इस संप्रदाय ने भूकंप के बाद सेवा के बहुत से काम किए जिसके लिए इसकी सराहना की जानी चाहिए।
26 जनवरी 2001 को यहां भूकंप आया था। तब से लेकर अगले डेढ़ महीने तक बीएपीएस ने कुल 11 स्थानों पर रसोइयों का परिचालन किया जहां भुज, अमदाबाद, अंजार, भचाऊ, भद्रा, गांधीधाम, जामनगर, खावड़ा, मोर्बी, रापर और सुरेंद्रनगर में कुल 37000 लोगों को रोज खाना मिलता रहा। इनके अलावा बीएपीएस ने 878,299 खाने के पैकेट भी बांटे, कोई 3000 लोगों को अपने राहत शिविरों में जगह दी और अस्थायी अस्पतालों में हजारों लोगों का इलाज किया। भूकंप के दूसरे हफ्ते में 7 फरवरी को बीएपीएस ने भुज के जुबली मैदान में एक मास मेमोरियल रखा जहां मृतकों के कोई हजार परिजन और दोस्त उन्हें श्रद्धांजलि देने के लिए आए। असली काम तब शुरू हुआ जब गुजरात सरकार ने बीएपीएस से कच्छ के गांवों को गोद लेने का आग्रह किया। इसके बाद पुनर्वास के लिए बीएपीएस ने 11 गांवों और 4 कालोनियों को गोद लिया। रिपोर्ट के मुताबिक दूसरे चरण में नए गांवों की योजना बनाने से पहले बीएपीएस के इंजीनियरों ने समूचे कच्छ का सर्वे किया और स्थायी निर्माण हो जाने तक 655 अस्थायी मकान 3480 लोगों को दिलवाए। शानदार भूकंपरोधी मकान बनवाए गए और गांवों को दोबारा बसा दिया गया।
शहरीकरण ने सामूहिकता और सहकारिता को कमजोर किया है। सामाजिक अलगाव और राज्य की उपेक्षा से अकेला पड़ा आदमी सम्प्रदायों की शरण में गया है। दक्षिणी गुजरात के आदिवासी इलाकों में यही प्रक्रिया कोई डेढ़ सौ साल से चल रही है, तब जाकर आज 17 किस्म के आदिवासी मोटे तौर पर भाजपा के वोटर हुए हैं।
हम कह सकते हैं कि भाजपा ने गुजरात में न केवल राजकाज और राजनीतिक मुद्दों को विस्थापित कर दिया है, बल्कि हिंदू धर्म को उसके समूचे अंगों-उपांगों सहित चुनाव के ले तैयार कर दिया है। गुजरात इस मामले में वाकई एक खास परिघटना है कि वहां राजनीति, धर्म और समाज के बीच की विभाजक रेखाएं मिट चुकी हैं।