गुजरात विधनासभा 2022 -इन सीटों पर कभी कमल नहीं खिला

गुजरात विधानसभा

गुजरात विधानसभा चुनावों का बिगुल बज गया है। बीजेपी और कांग्रेस के साथ साथ अब आप भी मैदान में है । ऐसे में इस बार के चुनाव पिछले चुनावों से ज्यादा दिलचस्प होंगे क्योंकि आप की मौजूदगी चुनावों को त्रिकोणीय बना रही है। चुनावी तारीखों के ऐलान के साथ ही राजनैतिक सरगर्मी भी जोर पकड़ रही है।

ढाई दशक से बीजेपी की सरकार

गुजरात में ढाई दशक से बीजेपी की सरकार है। ऐसे में कांग्रेस भी सत्ता में आने को बेकरार है तो वहीं आप भी चुनावों में हाथ साफ करने की जुगत में है। लेकिन सबसे बड़ी बात ये है कि ढाई दशक तक सरकार होने के बाद भी कुछ ऐसी सीटें है जिन पर कमल खिलने का इंतजार है। आज आपको बताते हैं कि गुजरात विधानसभा की कौन सी वो सीटें है जो आज भी फूल के खिलने के इंतज़ार में है।

वो सीटें जिन पर बीजेपी को है जीत का इंतज़ार

गुजरात बीजेपी की मजबूत गढ़ है बल्कि कह सकते है कि गुजरात सियासत की प्रयोगशाला भी रहा है। ऐसे में क्या वजह है कि आठ सीटें कमल के फूल को खिलते नहीं देख सकीं।बीजेपी ने 2017 के चुनावों में 150 से ज्यादा सीटें जीतने का टारगेट था। 2022 के चुनावों में ये टारगेट बढकर 160 रखा गया है। ऐसे में बीजेपी के लिए गुजरात की आठ सीटों पर जीत का परचम लहराना सबसे ज्यादा चुनौतीपूर्ण हैं, इन सीटों में बोरसद, झगडिया, आंकलाव, दाणीलीमडा, महुधा, गरबाडा और व्यारा विधानसभा हैं।

बीजेपी नहीं जीत पाने के पीछे क्या है कारण

आइए समझने की कोशिश करते हैं कि आखिर क्या वजह है कि इन सीटों पर बीजेपी जीत दर्ज नहीं करा पाई

1 बोरसद सीट

गुजरात के आणंद जिले की बोरसद विधानसभा सीट , इस सीट पर 15 बार चुनाव हुए जिनमें दो उपचुनाव शामिल हैं। इन चुनावों में कभी भी बीजेपी को जीत नहीं मिल सकी। गुजरात बनने के बाद 1962 में इस सीट पर निर्दलीय उम्मीदवार ने जीत दर्ज की थी, लेकिन उसके बाद से कांग्रेस का कब्जा है। मोदी लहर में भी भरतभाई सोलंकी कांग्रेस के टिकट पर तीन बार जीते तो वहीं अब राजेंद्र सिंह परमार कांग्रेस के विधायक हैं।

2 आंकलाव सीट

आंकलाव सीट आणंद जिले में आती है। 2012 के परिसीमन के बाद ये सीट अस्तित्व में आई। इससे पहले ये सीट बरसद विधानसभा क्षेत्र में थी। आंकलाव सीट कांग्रेस का गढ़ मानी जाती है। अभी अमित चावड़ा यहां के विधायक हैं।

3 झगड़िया सीट

गुजरात की झगडीया विधानसभा सीट पर 1962 से लेकर अब तक 13 बार चुनाव हो चुके हैं। इन चुनावों में कांग्रेस, जनता दल, जेडीयू के साथ साथ स्थानीय बीटीपी पार्टी तक के उमम्दीवारों ने जीत दर्ज कराई है लेकिन बीजेपी इस सीट पर अब तक जीत नहीं सकी। यह सीट आदिवासी बहुल सीट है और पिछले 35 सालों से छोटू भाई वसावा जीत दर्ज कराते आ रहे हैं। छोटू भाई बीपीटी विधायक हैं और उस इलाके के आदिवासियों के बड़े नेता माने जाते हैं। छोटू भाई को इलाके के आदिवासी मसीहा की तरह पूजते हैं। छोटू भाई वसावा सात बार के विधायक हैं और 2017 में उन्होंने बीजेपी के रवजी वसावा को मात दी थी।

4 गरबाड़ा सीट

दाहोद जिले की गरबाडा सीट भी आदिवासी बहुल सीट है। इस सीट पर बीजेपी ने कभी जीत दर्ज नहीं कराई। कांग्रेस के विधायक बारिया चंद्रिकाबेन छगनभाई लगातार दो बार से जीत दर्ज करा रहे हैं। 2017 में उन्होंने बीजेपी के भाभोर महेन्द्रभाई रमेशभाई को हराया था।

5 दाणीलीमड़ा सीट

दाणीलीमड़ा सीट अहमदाबाद के शहरी इलाके में आती है। इस सीट पर 1975 से कांग्रेस की जीत दर्ज हो रही है। साल 2017 में कांग्रेस के परमार शैलेष मनहरभाई ने बीजेपी के जीतेंद्र उमाकांत को करारी मात दी थी.
इस सीट पर बीजेपी कमल खिलाने को बरकरार है लेकिन कहीं न कहीं सियासी समीकरण कांग्रेस के पक्ष में होने के चलते बीजेपी को हार का सामना करना पड़ता है।

6 व्यारा विधानसभा

 

गुजरात की व्यारा विधनासभा सीट। ये सीट भी आदिवासी बहुल जिले के सीट है और कांग्रेस के लिए अपराजेय सीट मानी जाती हैं। पिछले 60 सालों में इस सीट पर कांग्रेस की ही कब्जा है। देश भर में मोदी लहर के बाद भी इस सीट पर कमल नहीं खिल सका। इस सीट पर अब तक 14 बार चुनाव हो चुके हैं और हर बार जीत कांग्रेस के ही खाते में आई। 2017 में कांग्रेस के गामीत पुनाभाई ढेडाभाई ने बीजेपी के चौधरी अरविंद भाई रूमसी भाई को मात दी थी।

7 महुधा सीट

गुजरात के खेड़ा जिले की इस सीट पर बीजेपी अभी तक जीत दर्ज नहीं करा सकी। इस आदिवासी बहुल सीट पर कांग्रेस की तरफ से नटवर सिंह ठाकोर छह बार विधायक रहे । 2017 में कांग्रेस ने नए चेहरे इंद्रजीत सिंह को मैदान में उतारा नए चेहरे से भी बीजेपी हार गई। बीजेपी के भरत सिंह परमार उन्हें मात नहीं दे सके।

बीजेपी जिन सीटों पर अभी तक जीत हासिल नहीं कर सकी उनमें से ज्यादातर आदिवासी बहुल सीटें है। बीजेपी की भरकस कोशिश है कि इस बार वो इन सीटों पर कमल खिला सके। हांलाकि सीटों के इतिहास को देखते हुए इतना तो तय है कि काम बीजेपी के लिए लोहे के चने चबाने जैसा होगा।

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