भोपाल गैस त्रासदी कांड की रात कई लोगों की जान बचाने में रेलवे कर्मचारियों के वीरतापूर्ण प्रयासों पर आधारित नेटफ्लिक्स सीरीज द रेलवे मेन के ट्रेलर ने त्रासदी की याद ताजा कर दी है। गैस कांड की 39 वीं बरसी से पहले विवाद भी खड़े हो रहे हैं। एक के परिवार ने अब द रेलवे मेन के निर्माता यशराज फिल्म्स के खिलाफ मुकदमा करने का फैसला किया है।
- गुमनाम हीरो हैं गुलाम दस्तगीर
- गुलाम दस्तगीर की दिलेरी से बची थी सैंकड़ों जान
- तत्कालीन स्टेशन उपाधीक्षक थे गुलाम दस्तगीर
- हज़ारों यात्रियों से भरी थी 116-अप लखनऊ धबई एक्सप्रेस
- गुलाम दस्तगीर ने किया था समय से पहले ट्रेन को रवाना
हालांकि वेब सीरीज ‘द रेलवे मेनः द अनटोल्ड स्टोरी ऑफ भोपाल 1984 की रिलीज पर रोक लगाने से बॉम्बे हाईकोर्ट पहले ही इनकार कर चुका है। कोर्ट ने कहा कि भोपाल गैस त्रासदी का विवरण पहले से ही पब्लिक डोमेन में है। दरअसल द रेलवे मेन 2 दिसंबर 1984 की देर रात भोपाल में यूनियन कार्बाइड कॉर्पोरेशन फैक्ट्री से गैस रिसाव के बाद हुई त्रासदी पर आधरित है। याचिकाकर्ताओं ने इसकी रिलीज पर रोक लगाने की मांग की थी लेकिन सीरीज के रिलीज से एक दिन पहले इस पर कोर्ट का फैसला आ गया। बता दें भोपाल रेलवे स्टेशन के तत्कालीन स्टेशन उप अधीक्षक स्वर्गीय गुलाम दस्तगीर के पुत्र का कहना है इस मिनीसीरीज के लिए उनके परिवार से कोई अनुमति नहीं ली गई न ही परामर्श किया गया। स्वर्गीय दस्तगीर के सबसे छोटे बेटे शादाब दस्तगीर ने कहा कि 2 और 3 दिसंबर 1984 की रात को जब गैस का रिसाव हुआ था तब भोपाल रेलवे स्टेशन पर हुए पूरे घटनाक्रम में उनके पिता गुलाम दस्तगीर की वीरतापूर्ण भूमिका मुख्य रूप से गुमनाम रही है। इन 4 दशकों में उन्हें आधिकारिक स्वीकार्यता और सराहना नहीं मिली। अब जब इसपर एक ओटीटी सीरीज़ बनाई गई है, तो यह कम परेशान करने वाली बात नहीं है कि वास्तविक घटनाओं के बारे में उनके परिवार से कभी सलाह नहीं ली गई।
तब रेलवे ने नहीं माना था इसे रेल हादसा
भोपाल गैस त्रासदी को विश्व की भीषणतम गैस दुर्घटना माना जाता है लेकिन रेलवे की परिभाषा में यह दुर्घटना नहीं थी। इसलिए रेलवे के गैस पीड़ित सरकारी मदद ही नहीं राहत और मुआवजे से वंचित थे। रेलवे का मानना था कि इस दुर्घटना से हमें क्या लेना-देना। ये कोई रेलवे एक्सीडेंट तो है नहीं? इसलिए तीन दिसंबर 1984 की रात जो लोग ड्यूटी पर तैनात थे। उन्हें कोई भी मुआवजा दिये जाने का दावा प्रारंभिक दृष्टि से नहीं माना गया था। रेलवे की इस परिभाषा से जहां कर्तव्यनिष्ठ कर्मचारियों का मनोबल टूटता गया था। कानून की भाषा को उसके पीछे छुपे उद्देश्यों से उपर मानने वाले आला अफसरों को लालफीताशाही का ही यह परिणाम था कि जब गैस त्रासदी का एक साल बीतने पर भी रेलवे इस बात का निर्णय नहीं ले सका था कि इस तरह की भयंकर दुर्घटना को झेलने वाले ड्यूटी पर मौजूद कर्मचारियों को किस तरह, ट्रीट’ किया जाये।
एक ट्रेन में सवार थे हजारों लोग, ऐसे बची थी उनकी जिंदगी
दरअसल 3 दिसंबर को गैस रिसन के समय भोपाल के रेलवे स्टेशन पर सैकड़ों रेलकर्मी ड्यूटी पर थे। ठीक स्टेशन पर तत्कालीन स्टेशन उपाधीक्षक गुलाम दस्तगीर के साथ 22 लोग ऑपरेटिंग स्टाफ के थे। गैस रिसन के दौरान हज़ारों यात्रियों से भरी 116-अप लखनऊ धबई एक्सप्रेस 1.35 बजे स्टेशन पर पहुंची। तब यह गाड़ी भोपाल में 32 मिनट रुकती थी। लेकिन तत्कालीन स्टेशन उपाधीक्षक दस्तगीर ने तत्काल निर्णय और रिस्क लेकर 1.50 बजे ही ट्रेन को तब भोपाल से रवाना कर दिया था। यदि उस दिन यह ट्रेन भोपाल से न बढ़ती तो गैस कांड में मरने वालों की संख्या कई हजार और बढ़ सकती थी। गुलाम दस्तगीर को ‘इस अप्रितम कार्य के लिए मुंबई में रोटरी क्लब ने सम्मानित भी किया था, किंतु रेलवे ने तब उन्हें पुरस्कृत करने की बात तो छोड़िए, दो शब्द का धन्यवाद भी नहीं कहा था। जबकि उसी दिन इयूटी पर तैनात दो रेलकर्मी मारे गए थे।