छठ पर्व जिसे छइठ या षष्ठी पूजा भी कहा जाता है । ये कार्तिक शुक्ल पक्ष के षष्ठी को मनाया जाने वाला एक हिन्दू पर्व है। सूर्योपासना का यह अनुपम लोकपर्व मुख्य रूप से बिहार, झारखण्ड, पश्चिम बंगाल, पूर्वी उत्तर प्रदेश और नेपाल के तराई क्षेत्रों में मनाया जाता है। माना जाता है यह पर्व मैथिल,मगध और भोजपुरी लोगों का सबसे बड़ा पर्व है। ये उनकी संस्कृति है। छठ पर्व बिहार में बड़े धूमधाम से मनाया जा रहा है। ये एक मात्र ही बिहार या पूरे भारत का ऐसा पर्व है जो वैदिक काल से चला आ रहा है और ये बिहार कि संस्कृति बन चुका हैं। यह पर्व बिहार कि वैदिक आर्य संस्कृति कि एक छोटी सी झलक दिखाता हैं। ये पर्व मुख्यरुप से ॠषियों द्वारा लिखी गई ऋग्वेद में सूर्य पूजन, उषा पूजन और आर्य परंपरा के अनुसार बिहार में यह पर्व मनाया जाता है। बिहार में हिन्दुओं द्वारा मनाये जाने वाले इस पर्व को अन्य धर्मावलम्बी भी मनाते देखे जाते हैं। धीरे धीरे यह त्योहार प्रवासी भारतीयों के साथ.साथ विश्वभर में प्रचलित हो गया है। छठ पूजा सूर्य, प्रकृति,जल, वायु और उनकी बहन छठी मइया को समर्पित है।
- लोक आस्था का महापर्व है छठ पूजा
- जाने क्या है छठ पूजा का महत्व?
- नहाय-खाय के साथ शुरु होगी छठ पूजा
छठ पूजा की शुरुआत इस बार 5 नवंबर 2024 को हो रही है और इसका समापन 8 नवंबर को होगा। छठ पूजा का पर्व कार्तिक मास की शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को मनाया जाता है। यह व्रत सबसे खास माना जाता है। इस व्रत में 36 घंटे तक निर्जला रहना पड़ता है।
आइए जानते हैं कि छठ पूजा कितने दिन का होता है और इसका क्या महत्व है। छठ पूजा के दिन सूर्यदेव और षष्ठी मैया की पूजा की जाती है। साथ ही इस दिन शिव जी की पूजा भी की जाती है। इसे सूर्य षष्ठी के नाम से भी जाना जाता है। छठ पूजा का पर्व संतान के लिए रखा जाता है। यह 36 घंटे का निर्जला व्रत रखा जाता है।
सीता जी ने भी की थी सूर्यउपासना
मान्यता हे कि जब श्री राम और माता सीता 14 साल के वनवास के बाद अयोध्या लौटे तब रावण वध के पाप से मुक्त होने के लिए उन्होंने ऋषि मुनियों के आदेश पर राजसूर्य यज्ञ करने का फैसला लिया। पूजा के लिए उन्होंने मुग्दल ऋषि को आमंत्रित किया। मुग्दल ऋषि ने मां सीता पर गंगाजल छिड़ककर पवित्र किया और कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को सूर्यदेव की उपासना करने का आदेश दिया। इससे सीता ने मुग्दल ऋषि के आश्रम में रहकर छह दिनों तक सूर्यदेव भगवान की पूजा की थी। सप्तमी को सूर्योदय के समय फिर से अनुष्ठान कर सूर्यदेव से आशीर्वाद प्राप्त किया था।
महाभारत काल से छठ पर्व की शुरुआत
पौराणिक मान्यता के मुताबिक कथा प्रचलित है कि छठ पर्व की शुरुआत महाभारत काल से हुई थी। इस पर्व को सबसे पहले सूर्यपुत्र कर्ण ने सूर्य की पूजा करके शुरू किया था। कहा जाता है कि कर्ण भगवान सूर्य के परम भक्त थे और वो रोज घंटों तक पानी में खड़े होकर उन्हें अर्घ्य देते थे। सूर्य की कृपा से ही वह महान योद्धा बने। आज भी छठ में अर्घ्य दान की यही परंपरा प्रचलित है।
द्रोपदी की भी पूरी हुई थी मनाकामना
किवदंती है कि जब पांडव सारा राजपाठ जुए में हार गए थे तब द्रोपदी ने छठ व्रत रखा था। इस व्रत से उनकी मनोकामना पूरी हुई थी। पांडवों को सब कुछ वापस मिल गया।
जानें क्या है छठ का पौराणिक महत्व
पुराणों के अनुसार प्रियव्रत नामक एक राजा की कोई संतान नहीं थी। इसके लिए उसने हर जतन कर कर डाले। लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। तब उस राजा को संतान प्राप्ति के लिए महर्षि कश्यप ने उसे पुत्रयेष्टि यज्ञ करने का परामर्श दिया। यज्ञ के बाद महारानी ने एक पुत्र को जन्म दिया। लेकिन वह मरा पैदा हुआ था। राजा के मृत बच्चे की सूचना से पूरे नगर में शोक छा गया। कहा जाता है कि जब राजा मृत बच्चे को दफनाने की तैयारी कर रहे थे। तभी आसमान से एक ज्योतिर्मय विमान धरती पर उतरा। इसमें बैठी देवी ने कहा मैं षष्ठी देवी और विश्व के समस्त बालकों की रक्षिका हूं। इतना कहकर देवी ने शिशु के मृत शरीर को स्पर्श किया। जिससे वह जीवित हो उठा। इसके बाद से ही राजा ने अपने राज्य में यह त्योहार मनाने की घोषणा कर दी।
नहाय खाय से होती है शुरुआत-जिस दिन छठ पूजा की शुरुआत होती है उस दिन को नहाय खाय के नाम से जाना जाता है। इस दिन व्रत करने से पहले एक बार ही खाना होता है। उसके बाद नदी में स्नान करना होता है। नहाय खाय मंगलवार 5 नवंबर को है।
खरना है दूसरा दिन-छठ का दूसरा दिन खरना कहलाता है। इस दिन सूर्योदय से लेकर सूर्यास्त तक महिलाओं का व्रत रहता है। शाम को सूर्यास्त के बाद व्रत तोड़ा जाता है। उसके बाद भोजन तैयार किया जाता है। उसके बाद भोग सूर्य को अर्पित किया जाता है। व्रत का तीसरा दिन दूसरे दिन के प्रसाद के ठीक बाद शुरू होता है। खरना जो इस बार 6 नवंबर को है। तीसरे दिन देते हैं अर्घ्य- छठ पूजा का तीसरे दिन सबसे प्रमुख दिन माना जाता है। इस मौके पर शाम के समय भगवान सूर्य को अर्घ्य देने की परंपरा है। बांस की टोकरी में फलों, ठेकुआ, चावल के लड्डू आदि से अर्घ्य के सूप को सजाया जाता है। इसके बाद व्रत करने वाले लोग अपने परिवार के साथ मिलकर सूर्यदेव को अर्घ्य देते हैं। इस दिन डूबते सूर्य की आराधना की जाती है। चौथे दिन उषा अर्घ्य- उषा अर्घ्य उगते सूरज को दिया जाता है। जिसके चलते इसे उषा अर्घ्य कहा जाता है। 36 घंटे के व्रत के बाद ये अर्घ्य दिया जाता है। इस बार 8 नवंबर को छठ का आखिरी दिन होगा।
(प्रकाश कुमार पांडेय)