उत्तर प्रदेश में लोकसभा की अधिकतर सीटों पर त्रिकोणीय मुकाबला देखने को मिल रहा है। जबकि अन्य राज्य ऐसे हैं जहां इंडी गठबंधन और एनडीए के बीच ही सीधी टक्कर नजर आ रही है। लेकिन उत्तर प्रदेश में BSP ने कई सीटों पर मुकाबला त्रिकोणीय बना दिया है। दरसल बीएसपी प्रमुख मायावती ने बिना किसी दूरे दल के साथ गठबंधन किए चुनाव में उतरने का फैसला किया है। हालांकि सियासी फिजा में यह सवाल भी तैर रहा है कि 2024 के आम चुनाव के बाद क्या बसपा का अस्तित्व बचा रहेगा?। साथ ही सियासी जानकार यह भी सवाल कर रहे हैं कि किसी किसी क साथ गठबंधन के चुनाव मैदान में उतरने के मायावती के इस फैसले से किस दल को फायदा होगा और किसे इसका नुकसान उठाना पड़ेगा।
सियासी आंकड़ों पर गौर करेंतो यूपी में एक दिलचस्प समीकरण दिखाई देता है और वह यह है कि बसपा की स्थिति यहां भाजपा की चाल पर निर्भर करती है। जब जब राज्य में बीजेपी ऊपर उठी है तब तब बीएसपी का ग्राफ गिरा है और जब जब बसपा का ग्राफ बढ़ा तो भाजपा का ग्राफ नीचे आया हैं, भाजपा पिछड़ती है।
मायावती को क्यों नहीं होता गठबंधन का लाभ?
पिछले चुनाव की बात करें तो बसपा और समाजवादी पार्टी साथ मिलकर चुनाव मैदान में उतरी थीं। तब 10 सीट बसपा को मिली थी। इस बार बसपा अपने दम पर अकेले ही चुनावी मैदान है। बसपा की यह एकला चलो की रणनीति उसे ऊर्जा देगी या उसके लिए चुनावी चुनौती बढ़ाएगी यह चार जून को साफ होगा। इससे पहले सवाल यह भी उठता है कि बीएसपी इस बार अकेले चुनाव मैदान में क्यों उतरी है जबकि पिछली बार गठबंधन में बसपा को फायदा ही हुआ था। हालांकि पार्टी सुप्रीमो मायावती यह कहती रही हैं कि बसपा को किसी भी दल के साथ गठबंधन में कोई फायदा नहीं होता है।
BJP को बढ़त ….BSP को नुकसान
यूपी में पिछले चुनावों के परिणामों पर गौर करें तो बीजेपी को जब-जब अधिक सीट हासिल हुईं है तब-तब बसपा का ग्राफ नीचे गया है यानी उसकी सीटें कम हुईं हैं। उसका प्रदर्शन खराब हुआ है। 1998 में हुए लोकसभा चुनाव की बात करें तो बसपा को यूपी की 80 में से चार सीटें मिली थी। जबकि बीजेपी ने 80 में से 52 सीट पर जीत हासिल की थी। इसके बाद 1999 के आम चुनाव में बसपा ने प्रदर्शन में सुधार किया और उसने 14 सीटों पर जीत दर्ज की। वहीं भाजपा को नुकसान उठाना पड़ा। 1999 में बीजेपी को लोकसभा की 25 सीटों पर ही जीत मिली। इसके बाद 2004 में बीएसपी ने सीटों की संख्या बढ़ाकर 19 तक पहुंचाई तो बीजेपी की सीट और कम हो गई उसे मात्र 10 सीटें ही मिलीं।
इसके पांच साल बाद 2009 में भी बसपा ने लोकसभा के चुनाव में 20 सीटों पर जीत हासिल की। बीजेपी को इस बार भी 10 सीटें मिली। लेकिन 2014 के चुनाव में बीजेपी ने तेजी से वापसी की। तब बसपा को यूपी की 80 में से एक भी सीट नहीं मिली। बीजेपी ने 80 में से 71 सीटों पर जीत हासिल की। इसके बाद 2019 में हुए चुनाव में बसपा के प्रदर्शन में थोड़ा सुधार देखने को मिला उसे 10 सीटों पर जीत मिली तो बीजेपी की सीटों संख्या कम हो गई उसे 9 सीटों का नकसान हुआ यानी बीजेपी को 62 सीट ही मिली। ऐसे में राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि अब 2024 के यह आम चुनाव बीएसपी के लिये बहुत खास हैं, उसके वजूद की लड़ाई यह चुनाव हैं। क्योंकि पिछले 2019 के चुनाव में उसने सपा के साथ मिलकर चुनाव लड़ा और 10 सीटों पर जीत दर्ज की थी।इसके बाद 2022 में यूपी विधानसभा चुनाव में भी पार्टी का प्रदर्शन बेहद निराशा जनक रहा था। यही वजह है कि यह चुनाव इस बार बसपा के अस्तित्व की लड़ाई है।
इस बार चुनाव में सबसे खास बात यह है कि बसपा किसी गठबंधन का चुनावी समीकरण बिगाड़ सकती है। जानकार कहते हैं कि बसपा की राजनीति हमेशा से ही सपा के खिलाफ ही रही है। उसके लिए बीजेपी पहले भी चुनौती नहीं थी। ऐसे में बसपा प्रमुख मायावती को लगकि किसी भी तरह का गठबंधन का फायदा सपा को न मिल जाए। वहीं यह भी कहा जा रहा है कि भाजपा के बढ़ने के दो सबसे अहम कारण है। पहला ओबीसी वोटर्स उसके साथ आया। मंडल आंदोलन के बाद से ही छोटी-छोटी जातियां बीजेपी के साथ आ गयी थीं। दूसरा बड़ा कारण यह है कि बसपा के कोर वोटर्स में भी बिखराव हुआ है।
बसपा के वोट बैंक में तेजी से हुई कमी
यूपी में बसपा प्रमुख मायावती चार बार मुख्यमंत्री रह चुकी हैं। बपास ने साल 2009 में 27 प्रतिशत से ज्यादा वोट शेयर हासिल किया था। उसके 20 सांसद लोकसभा भी पहुंचे थे। हालांकि 2014 में बसपा इस प्रदर्शन को दोहरा नहीं पाई और ना ही साल 2019 में गठबंधन के बाद उसकी सीटों में सुधार हुआ। ऐसे में बसपा के वोट बैंक में तेजी से कमी देखने को मिली। 2022 के विधानसभा चुनाव में बसपा का वोट शेयर घटकर महज 13 प्रतिशत के करीब रह गया था।