कांच ही बांस के बहंगिया…बहंगी लचकत जाए। मारवो रे सुगवा धनुख से जैसी छठी मैया की गीत से बिहार की फिजा में एक बार फिर से गुंजायमान है। आप यदि बिहार से ताल्लुक रखते हैं और रोजी और रोटी या फिर किसी और वजह से भी बिहार से बाहर रह हैं तो भी इन गीतों को सुनते ही आपके मन में छठी मैया के प्रति श्रद्धा का एक गुबार निकलने लगता है। गीत सुनते ही रोए खड़े होने लगते हैं। मन करता है कि कैसे भी करके अपने परिवार के पास बिहार में अपने गांव पहुंच जाएं। हालांकि रोजी-रोटी और परिवार की जिम्मेदारी के चलते मन मसोड़ कर अपने काम में लग जाना पड़ता है। चैती छठ को लेकर बिहार और देश-विदेश में रहने वाले बिहार से ताल्लुक रखने वाले लोगों की बस्तियों में छठी मैया के गीत गूंज रहे हैं।
चैती छठ एक अप्रैल से शुरू हो रहा
करीब 5 महीने बाद एक बार फिर बिहार में छठ के गीत की गूंज सुनाई दे रही है। कार्तिक माह के बाद अब चैती छठ महापर्व की तैयारी की जा रही है। इस बार लोकआस्था का चार दिनी यह महापर्व छठ सोमवार 1 अप्रैल से शुरू होगा। पहले दिन विधि-विधान और अत्यंत पवित्रता के साथ नहाय और खाय होगा।
नहाय-खाय के साथ विधि-विधान शुरू
नहाय-खाय के दिन व्रतधारी महिलाएं स्नान और ध्यान कर नया वस्त्र धारण कर पर्व के निमित्त गेहूं धोकर सुखाएंगी। गेहूं सुखाने में भी निष्ठा रखना जरुरी होती है। इसका अर्थ है सूखने के लिए पसारे गये गेहूं पर उठाने तक नजर बनाए रखी जाती है। कहीं कोई चिड़ियां दाना न चुग ले। नहाय खाय के दिन व्रती अरवा खाना ग्रहण करती है। उनके भोजन में अरवा चावल के भात के साथ कद्दू की सब्जी होती है।
दूसरे दिन खरना होता है
नहाय और खाय के अगले दिन 2 अप्रैल मंगलवार को खरना होगा। इसदिन व्रती दिनभर उपवास करेंगी। शाम के समय खीर और सोहारी विशेष तरह की रोटी का प्रसाद बनाया जाएगा। यह प्रसाद मिट्टी के चूल्हे पर आम की लकड़ी के जलावन से तैयार किया जाता है। खरना के प्रसाद में केले को भी शामिल किया जाता है।
प्रसाद बन जाने के बाद व्रती एक बार फिर स्नान-ध्यान करते है, रात में छठी मईया को प्रसाद का भोग लगाएंगी। भोग लगाने के बाद वह भी इसी प्रसाद को ग्रहण भी करती हैं। इसके साथ ही 36 घंटे का निर्जला और कठिन अनुष्ठान शुरू हो जाता है।
खरना के साथ 36 घंटे का निर्जला व्रत
खरना के अगले दिन बुधवार की शाम को अर्घ्य होगा। इस दिन शाम के समय डूबते सूरज को अर्घ्य दिया जाएगा है। व्रती परिवार के पुरुष डाला-दउड़ा लेकर जहां नंगे पांव नदी और तालाब, पोखरों के किनारे पहुंचते हैं तो वहीं व्रती महिला जलस्रोत में स्नान कर पानी में खड़ी रहकर सूर्य देवता की आराधना करती हैं। जब सूरज ढ़लने लगता है, तब तक क्रमवार रूप से सभी व्रती महिलाएं डाला और दउड़ों को जल का आचमन कर अर्घ्य प्रदान करती हैं।
उदीयमान सूर्य को अर्घ्य के साथ समापन
वापस घर जाने के बाद एक बार फिर सुबह वे अपने परिजनों के साथ घाट पर पहुंचती है। जहां वे फिर से सूर्यदेव की आराधना करती हैं। जैसे ही आसमान में सूरज की लालिमा नजर आती है, सभी डाला और दउड़ों का फिर से आचमन कराते। उसमें अर्घ्य दिया जाता है। उगते हुए सूर्य को अर्घ्य देने के साथ ही पर्व संपन्न होता है। व्रती महिलाएं घर आकर अपने गृहदेवता और ग्राम देवता की पूजा कर पहले छठ का प्रसाद ग्रहण करती हैं। इसके बाद ही अनाज ग्रहण करती हैं।
कार्तिक के छठ के समान नहीं होती भीड़
कार्तिक महीने छठ की तरह चैती छठ में भीड़ नहीं होती है। क्योंकि चैती छठ मान्यता और मनोकामना का पर्व माना जाता है। अर्थ है कोई अपने परिवार की सुख और समृद्धि को लेकर मनोकामना करते हैं। व्रत पूरा हो जाता है तो वे परिवार मान्यता अनुसार एक, तीन या पांच साल तक व्रत करते हैं। अथवा मनोकामना पूरी होने तक चैती छठ का अनुष्ठान पूरे उत्साह से करते हैं। चैती छठ में घाट पर भी नहीं होती वैसी भीड़। चैत्र में बाजार में उपलब्ध होने वाले फल और ठेकुआ के साथ पुड़ुकिया और कसार जैसे पकवानों से ही पूजा होती है।..प्रकाश कुमार पांडेय