बीजेपी ने हिंदी पट्टी के राज्य मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के विधानसभा चुनाव में अपनी जीत के साथ लोकसभा चुनाव 2024 के लिए लकीर खेंच दी है। पार्टी ने जो आम चुनाव कुछ ही माह दूर हैं उसके लिए आम माहौल तैयार कर दिया है। हालांकि बीजेपी की संगठनात्मक संरचना, संघ समर्थित कार्यकर्ताओं की पार्टी के प्रति प्रतिबद्ध सेना और उसकी प्रतिबद्धता के साथ बूथ स्तर तक पार्टी कार्यकर्ताओं में ये जोशीली भागीदारी ही उसकी चुनावी शोभायात्रा को शक्ति प्रदान करती है, लेकिन नरेन्द्र मोदी ही उसके सूत्र संचालक हैं और चुनावों में मोदी ब्रांड को और अधिक मजबूती मिली है। संगठन, नेतृत्व और नैरेटिव- इन तीनों ही मामलों में कांग्रेस मौजूदा दौर में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली बीजेपी से काफी पीछे रह गई है। लेकिन इस बार 400 पार के नारे को साकार करने के लिए बीजेपी को हिंदी भाषी ही नहीं दक्षिण के राज्यों का भी साथ चाहिए।
- तीन राज्य में सत्ता कायम कर आसान की 2024 की राह
- 2024 के चुनाव से पहले बीजेपी को मिला हिंदी पट्टी का साथ
- संजीवनी से कम नहीं एमपी, छत्तीसगढ़ और राजस्थान की जीत
- दक्षिण में बीजेपी को तलाशना होंगे नए चेहरे
दरअसल मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में बीजेपी ने बगैर मुख्यमंत्री का चेहरा सामने लाये बगैर चुनाव मैदान में विपक्ष को करारी मात दी है। इतना ही नहीं पार्टी ने अपने क्षेत्रीय क्षत्रपों को हाशिए पर धकेलने के फैसले के साथ ही कर्नाटक शैली का आत्मघाती गोल एक बार कैसे कर सकती है इसे लेकर सभी विश्लेषणों को गलत साबित कर दिया। बीजेपी में पूर्व सीएम वसुंधरा राजे के साथ समझौता कर राजस्थान में अपने प्रचार अभियान को आगे बढ़ाया और कांग्रेस की गहलोत सरकार का तख्ता पलट दिया। मध्यप्रदेश में चुनाव के बीच शिवराज सिंह चौहान को थोड़ी प्रमुखता दी गई लेकिन पूरे समय प्रचार के दौरान मुख्य फैक्टर मोदी ही बने रहे। यही वजह है कि चुनाव में मिली जीत के बाद बीजेपी ने मध्यप्रदेश में मुख्यमंत्री का चेहरा बदला।
बीजेपी को दक्षिण में खारिज नहीं किया जा सकता
बाजपेयी-आडवाणी युग वाले भाजपा नेताओं की अंतिम पीढ़ी को खत्म करने और एक नई बीजेपी बनाने का फैसला कर लिया है। निश्चित रूप से तेलंगाना के साथ-साथ कर्नाटक और उससे पहले हिमाचल प्रदेश ने भी यह दर्शाया था कि हर राज्य के चुनाव में मोदी फैक्टर गारंटी नहीं है। दरअसल, विधानसभा और आम चुनाव अक्सर बहुत अलग तरीके से होते हैं। 2018 में यहां कांग्रेस ही थी। जिसने इन्हीं तीन मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में जीत हासिल की थी और कुछ ही महीने बाद हुए लोकसभा चुनावों में वह बीजेपी से निर्णायक रूप से हार गई थी। लेकिन इस बार बीजेपी ने जिन तीन राज्यों में जीत हासिल की उनमें से राजस्थान और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की सरकार थी। हालिया इतिहास से पता चलता है कि साल 2013 के बाद से ही कांग्रेस पार्टी किसी राज्य में अपनी मौजूदा सरकार को वापस सत्ता नहीं दिला सकी है। दूसरी तरफ कल्याणकारी योजनाओं, राष्ट्रवाद, हिंदुत्व और एक अपराजेय, साधन-संपन्न चुनावी मशीनरी की मदद से नरेंद्र मोदी की निर्विवाद लोकप्रियता उन्हें और उनकी पार्टी को सभी चुनावों में मुख्य दावेदार बना देती है। कुछ कांग्रेस समर्थकों ने इस विचार को तुरंत स्वीकार कर लिया कि शायद यह उत्तर- दक्षिण का अंतर है। लेकिन बीजेपी को दक्षिण में खारिज नहीं किया जा सकता।
तेलंगाना में एक कदम आगे बढ़ी बीजेपी
2019 के लोकसभा चुनाव में उसने कर्नाटक की 28 में से 25 सीटें जीतकर दक्षिण में अपना परचम लहराया था। इस बार तेलंगाना में कांग्रेस की नाटकीय जीत के बावजूद बीजेपी ने अपना वोट शेयर दोगुना कर लिया है। साल 2018 में हुए चुनाव के बाद 2023 में उसे 1 सीट का लाभ मिला है जिससे बढ़कर 8 सीट पर पहुंच गई। हालांकि चुनावी हार का सामना करने वालों में बीजेपी के तेलंगाना राज्य प्रमुख बंडी संजय भी शामिल हैं। जिन्हें चुनाव से पहले संगठन के पद से हटा दिया गया था। अधिकांश सियासी विश्लेषकों का तर्क कि बंडी संजय को बीजेपी पद से नहीं हटाती तो उसे अधिक सीटें मिल सकती थी। यही वजह है कि नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली बीजेपी को केवल हिंदी पट्टी वाली राजनीतिक पार्टी कहकर निरस्त कर देना दक्षिण में विपक्ष की गंभीर गलती हो सकती है। क्योंकि बीजेपी अब दक्षिण के राज्यों से जुड़े मुद्दों को भी पुरजोर तरीके से उठा रही है।
दक्षिण के राज्यों की 101 लोकसभा सीटों पर नजर
उत्तर भारत में बीजेपी का गढ़ है लेकिन तेलंगाना के चुनावी निर्णय बता रहे हैं कि पिछली बार के मुकाबले बीजेपी के वोट बड़े हैं। हालांकि केरल, आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु में बीजेपी चुनाव में बड़ा असर डालने की स्थिति नहीं दिखाई दी। यही वजह है कि बीजेपी ने हाल के दिनों में दक्षिण राज्यों में पूरा फोकस किया है। हाल के दिनों में बीजेपी ने अपना फोकस दक्षिण के राज्यों में बढ़ाया है। दक्षिण का एंट्री गेट कहे जाने वाले कर्नाटक को गंवाने के बाद बीजेपी दक्षिण के राज्यों को लेकर अचानक से राजनीतिक रणनीति बनाने में जुटी हुई है। चाहे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी या अमित शाह का दौरा हो या फिर पार्टी के दूसरे छोटे बड़े नेताओं की छोटी बड़ी रैलियां। 2019 के लोकसभा चुनाव में कर्नाटक को छोड़कर बीजेपी को चार राज्यों की 101 लोकसभा सीटों में केवल चार पर जीत मिली थी। अब इन्हीं सीटों को अपने पाले में लाने के लिए बीजेपी आक्रामक है। जिसके लिए दक्षिण के राज्यों में भी सनातन और धार्मिक बयानों को लेकर माहौल बनाया जा रहा है। दक्षिण से जुड़े हर मुद्दे को बीजेपी पुरजोर तरीके से उठा रही है। ऐसे में उत्तर भारत में अपना परचम लहराने के बाद अब बीजेपी दक्षिण भारत में भी ऐसा ही परचम लहराना चाहती है। इसके लिए पार्टी की ओर से कई सियासी सर्वे शुरू किए जा रहे हैं। बीजेपी ने अपना मिशन दक्षिण भी शुरू कर दिया है।
दक्षिण को साधने की ये है रणनीति
बात करें आंध्र प्रदेश की तो लोकसभा के साथ ही यहां विधान सभा के भी चुनाव होंगे। माना जा रहा है कि बीजेपी यहां टीडीपी और पवन कल्याण की पार्टी जनसेना से राजनीतिक समझौता कर सकती है। हालांकि गठबंधन इसी शर्त पर होगा कि लोकसभा में वह सीनियर पार्टी रहेगी। उधर तमिलनाडु में एमकेएम, पीटी पार्टी जैसे क्षत्रीय दलों और निर्दलीयों के 1 से 2 लाख वोट पाने वाले नेताओं को बीजेपी अपने साथ जोड़ सकती है। इस तरह कन्याकुमारी, मदुरै, चेन्नई दक्षिण, तेनकासी, रामनाथपुरम, तुतुकुडी सहित लोकसभा की 19 सीटों पर बीजेपी चुनाव लड़ेगी। केरल में लेफ्ट और कांग्रेस से जिन नेताओं को टिकट नहीं मिलेगा ऐसे टिकट से वंचित नेताओं को साधने की कोशिश बीजेपी कर सकती है। वहीं नरेन्द्र मोदी के नाम पर चर्च से समर्थन हासिल करने की रणनीति पर भी बीजेपी काम कर सकती है।